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सोमवार, मई 4

है भला वह कौन

है भला वह कौन 


वह नीलमणि सा प्रखर मनहर 
गुंजित करता किरणों के स्वर,
शब्दों से यह संसार रचा 
स्वयं मुस्काये, न खुलें अधर !

नित सिक्त करे, झरता झर-झर 
मूर्तिमान सौंदर्य सा वही, 
उल्लास निष्कपट अंतर में 
ज्यों निर्मल सुख की धार बही !

वह पल भर झलक दिखाता है 
फिर उसकी यादों के उपवन, 
सदियों तक मन को बहला दें 
युग-युग तक उनकी ही धड़कन ! 

वह एक नरम कोमल धागा 
जग मोती जिसमें गुँथा हुआ,
सृष्टि या प्रलय घटते निशदिन 
उसका आकर न अशेष हुआ 

उसको ही गाया मीरा ने 
रसखान, सूर नित आराधें,
भारत भूमि का पुहुप पावन
उसकी सुवास से घट भरते !

सोमवार, मार्च 10

नीलमणि सा कोई भीतर

नीलमणि सा कोई भीतर



कितने दर्द छिपाए भीतर
 ऊपर-ऊपर से हँसता है,
 कितनी परतें चढ़ी हैं मन पर
 बहुत दूर खुद से बसता है !

जरा उघेड़ें उन परतों को
 नीलमणि सा कोई भीतर,
जगमग चमचम दीप जल रहा
झलक दिखाने को आतुर !

कभी लुभाता जगत, यह जीवन
छूट न जाये भय सताता,
कभी मगन हो स्वप्न सजाये
भावी सुख के गीत बनाता !

इस पल में ही केवल सुख है
जिसने अब तक राज न जाना,
आशा ही बस उसे जिलाती
जिसने खुद को न पहचाना !

जीना जिसने सीख लिया है
कुछ भी पाना न शेष रहा,
हर क्षण ही तब मुक्ति का है
लक्ष्य न कोई विशेष रहा !