है भला वह कौन
वह नीलमणि सा प्रखर मनहर
गुंजित करता किरणों के स्वर,
शब्दों से यह संसार रचा
स्वयं मुस्काये, न खुलें अधर !
नित सिक्त करे, झरता झर-झर
मूर्तिमान सौंदर्य सा वही,
उल्लास निष्कपट अंतर में
ज्यों निर्मल सुख की धार बही !
वह पल भर झलक दिखाता है
फिर उसकी यादों के उपवन,
सदियों तक मन को बहला दें
युग-युग तक उनकी ही धड़कन !
वह एक नरम कोमल धागा
जग मोती जिसमें गुँथा हुआ,
सृष्टि या प्रलय घटते निशदिन
उसका आकर न अशेष हुआ
उसको ही गाया मीरा ने
रसखान, सूर नित आराधें,
भारत भूमि का पुहुप पावन
उसकी सुवास से घट भरते !