नीलमणि सा कोई भीतर
कितने दर्द छिपाए भीतर
ऊपर-ऊपर से हँसता है,
कितनी परतें चढ़ी हैं मन पर
बहुत दूर खुद से बसता है !
जरा उघेड़ें उन परतों को
नीलमणि सा कोई भीतर,
जगमग चमचम दीप जल रहा
झलक दिखाने को आतुर !
कभी लुभाता जगत, यह जीवन
छूट न जाये भय सताता,
कभी मगन हो स्वप्न सजाये
भावी सुख के गीत बनाता !
इस पल में ही केवल सुख है
जिसने अब तक राज न जाना,
आशा ही बस उसे जिलाती
जिसने खुद को न पहचाना !
जीना जिसने सीख लिया है
कुछ भी पाना न शेष रहा,
हर क्षण ही तब मुक्ति का है
लक्ष्य न कोई विशेष रहा !
जीना जिसने सीख लिया है
जवाब देंहटाएंकुछ भी पाना न शेष रहा,
हर क्षण ही तब मुक्ति का है
लक्ष्य न कोई विशेष रहा !
...बिल्कुल सच...लोग जीने की भाग दौड़ में जीना ही भूल गए हैं...बहुत प्रभावी प्रस्तुति...
सुन्दर व् सार्थक अभिव्यक्ति .बधाई
जवाब देंहटाएंकैलाश जी व शालिनी जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंपरत ऐसा चढ़ा है कि उघड़-उघड़ कर भी चिपका ही रहता है और नीलमणि स्वप्न सा लगता है . अति सुन्दर कृति..
जवाब देंहटाएंस्वप्न भी सच होगा एक दिन..
हटाएंअत्यंत सुन्दर ..... आपकी रचना पर अक्सर कुछ भी कहने के लिए शब्द ही नहीं मिल पाते
जवाब देंहटाएंऊपरी आवरणों के पार अंतर में स्थित नीलमणि को जिसने पा लिया वह धन्य है .पर उसे पूरा कौन पा सका, कुछ न कुछ शेष रह कर बार-बार उद्वेलित करता है
जवाब देंहटाएंउसकी झलक ही तृप्त कर जाती है..
हटाएंबहुत बहुत आभार यशवंत जी !
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