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शुक्रवार, जुलाई 5

नमन तुझी को



नमन तुझी को 

तेरे ही कदमों में सिर यह झुकाया है
तुझमें ही नैन ने सारा जग पाया है,
तुझपे ही वारी हूँ दिल को लुटाया है
तू ही तू बस अंतर.. मन में समाया है !

आने में देर की भटकन थी राहों में
फूलों के झुरमुटे खोया उर चाहों में,
कंटक न देखे थे सुख सोया आहों में
दरिया इक बहता था तेरी निगाहों में !

तुझसे ही तन पाया तुझसे ही मिला मन
सृष्टि की रचना में तेरा ही है नर्तन,
तुझसे ही आच्छादित जग के सारे कण
अद्भुत हर वर्तन है अद्भुत अतुल सर्जन !

मंगलवार, मार्च 13

मुक्ति के सँग बंधन भी है


मुक्ति के सँग बंधन भी है


सोते-सोते युग बीते हैं
अब तो जाग जरा मन मेरे,
चौराहे पर आ पहुँचा है
ठिठके कदम भला क्यों तेरे !

जाने कब यह नैन मुंदेगें
उससे पूर्व नहीं खिलना है ?
सुरभि लिये क्या जाना जग से
बन सूरज जग से मिलना है !

कुदरत तेरी ओर निहारे
इक संकल्प जगा कर देख,
मंजिल राह तका करती है
खींच क्षितिज तक रक्तिम रेख !  

 तज दे तंद्रा सुबह सामने
इक उड़ान भर छूले अम्बर,
दुःख चादर को झट उतार दे
सुख समीर बह रही झूमकर !

अलस बिछौना कब तक भाए
फूलों के सँग कंटक भी हैं,
घटे नहीं जागरण जब तक
मुक्ति के सँग बंधन भी है !