मुक्ति के सँग बंधन भी है
सोते-सोते युग बीते हैं
अब तो जाग जरा मन मेरे,
चौराहे पर आ पहुँचा है
ठिठके कदम भला क्यों तेरे !
जाने कब यह नैन मुंदेगें
उससे पूर्व नहीं खिलना है ?
सुरभि लिये क्या जाना जग से
बन सूरज जग से मिलना है !
कुदरत तेरी ओर निहारे
इक संकल्प जगा कर देख,
मंजिल राह तका करती है
खींच क्षितिज तक रक्तिम रेख !
तज दे तंद्रा सुबह सामने
इक उड़ान भर छूले अम्बर,
दुःख चादर को झट उतार दे
सुख समीर बह रही झूमकर !
अलस बिछौना कब तक भाए
फूलों के सँग कंटक भी हैं,
घटे नहीं जागरण जब तक
मुक्ति के सँग बंधन भी है !
अपलक पढता रहा समझता, रहस्य सार गीता का |
जवाब देंहटाएंश्लोक हो रहे रविकर अक्षर, है आभार अनीता का ||
दिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
वाह कितना सुन्दर और सहज उद्बोधन्।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंआज के युवा वर्ग के लिए एक सार्थक सन्देश देती है आपकी रचना...
आभार.
सोते-सोते युग बीते हैं
जवाब देंहटाएंअब तो जाग जरा मन मेरे,
मन जगाता हुआ आह्वान .....
बहुत सुंदर लिखा है अनीता जी ...
मुक्ति के सँग बंधन भी है !
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही सुन्दर मुक्ति के संग बंधन भी हैं इस एक पंक्ति में बहुत गहन सत्य छिपा है .........हैट्स ऑफ इसके लिए।
bahut sundar aahvan kiya hai.anita ji aapka shabd chayan lajawab hai.
जवाब देंहटाएंye vanshvad nahin hain kya
इस कविता को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।
जवाब देंहटाएंअलस बिछौना कब तक भाए
जवाब देंहटाएंफूलों के सँग कंटक भी हैं,
घटे नहीं जागरण जब तक
मुक्ति के सँग बंधन भी है !
अद्भुत.....!
सुख समीर बह रही झूमकर
जवाब देंहटाएंउड़ान भरो बस अम्बर चूमकर ..ऐसे ही राह दिखाती रहें आप..आपको नमन..