मन का क्यों द्वार उढ़का है
खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !
बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !
बाहर ही से दस्तक देता
कैसे वह प्रियतम घर आये,
फिर कोई क्यों करे शिकायत
क्यों न बंधन उसे सताए !
जब चाहे वह आ सकता हो
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !
नृत्य उपजता ऐसे मन में
लहर-लहर में तरंगें उठतीं,
कोई जिसको नहीं दूसरा
सारी सृष्टि वहीं उतरती !
मन-मयूर कर ताताथैया
अनजाने से सुख में डोले,
पंखों में भर नेह ऊर्जा
गोपी उर की भाषा बोले !
वेदनायें शर्मा जाएँगी
मन का वह उछाह देख के,
ज्यों अशोक वन में हो सीता
हर्षित राम मुद्रिका लख के !
अनिता निहालानी
१ जून २०११
बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
जवाब देंहटाएंसूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !
पूरी कविता के साथ ही यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं.
सादर
bahut bahut sundar .badhai
जवाब देंहटाएंबंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
जवाब देंहटाएंसूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !
....बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति..
खुला-खुला सा आमन्त्रण हो
जवाब देंहटाएंजब चाहे वह आ सकता हो,
उसको पूरी आजादी हो
कुछ ऐसा उसे निमंत्रण हो !
BAHUT SUNDR BHAV .PRABHUMAY RACHNA .
अनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ......उसको निमंत्रण देकर भी हम अपने दरवाज़े बंद कलर लेते हैं जबकि वो हर क्षण हमारे पास ही है......बहुत सुन्दर कविता.....ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आई-
खुला आसमां कैद नहीं है
बेपर्दा नदिया बहती है,
खुलेआम करे छेड़ाखानी
हवा किसी से न डरती है !
बंद खिड़कियों पर पर्दे हैं
सूरज सरेआम उगता है,
दीवारें क्यों चिन डाली हैं
मन का क्यों द्वार उढ़का है !