पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित
ओस की मोती जैसी बूंदें
सजा गयी हैं कोमल तन को,
सद्यस्नात पुष्प अति मनहर
भा जाता हर निर्मल मन को !
खिलकर कृत-कृत्य हो जाता
तप करता है वह मिटकर,
चढ़ जाता है उन चरणों पर
हो जाता अर्पित वह हंसकर !
अंतर हरा-भरा हो जाता
खुशियों की फसल लहराए,
पुष्प बिखेरे सुरभि सुवासित
जग को अपना आप चढ़ाए !
चलता-फिरता देवालय है
अति पावन एक शिवालय है,
बहती प्रेम की गंगा जिससे
यह ऐसा एक हिमालय है !
अनिता निहालानी
१६ अप्रैल २०११
खुबसूरत एहसासों से सजी रचना |
जवाब देंहटाएंवाह ! क्या खूब कहा है-
जवाब देंहटाएंखिलकर कृत-कृत्य हो जाता
तप करता है वह मिटकर,
चढ़ जाता है उन चरणों पर
हो जाता अर्पित वह हंसकर !
बहुत ही कोमल अनुभूति, शबनम जैसी ही प्यारी और पवित्र जिसमे छिपा है एक आदर्श. और जीवन दर्शन भी. बहुत ही प्यारी रचना जो कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से मन को भा गे. दिल पर छा गयी और जीने की कला भी सिखा गयी. इसे सेव कर रख लिया है. बार-बार पढने को मन करता है. आभार इस प्रस्तुति हेतु.
पुष्प का जन्म ही शायद दूसरों के काम आने के लिए ही हुआ है. सुंदर अनुभूति और भावाभिव्यक्ति. आभार.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दरता से आपने पुष्प की सुगंध को बिखेरा है.....शानदार......तीन बातें...
१. 'हैं' की जगह 'है' को पकड़ने के लिए आपकी पारखी नज़र को सलाम....
२. ब्लॉग का नया स्वरुप बहुत अच्छा है....पर यहाँ आपकी पुराणी रचनाएँ नहीं दिख रहीं|
३. पोस्ट की तस्वीर शायद आपने खुद ली है .....बहुत सुन्दर है.....पर ये फूल कौन सा है ये मुझे नहीं पता हो सके तो बताएं.....मुझे बहुत अच्छा लगा ये फूल |
मीनाक्षीजी,डॉ तिवारी, रचना जी व इमरान जी, आप सभी का आभार ! मुझे तो पुरानी रचनाएँ दिख रही हैं, पोस्ट की तस्वीर हमारे बगीचे के गुलदाउदी नामक फूल की है
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