भीतर कोई जाग गया है
भीतर कोई जाग गया है
जला के कोई आग गया है,
दिव्य अनल शीतल, शुभकारी
दिप-दिप होती अंतर बारी !
जब हम नयन मूंद सो जाते
स्वप्नलोक में दौड़ लगाते,
तब भी कोई रहे जागता
खैर हमारी रहे मांगता !
कोई घेरे हर पल हमको
साया कोई साथ लगा है,
सदा निगाहें पीछा करतीं
अंतर में वह प्रीत पगा है !
माँ सा ध्यान रखे है सबका
फिर क्यों दिल में द्वंद्व सहें,
सौंप सभी कुछ रहें मुक्त हो,
प्रीत में उसकी गीत कहें !
मधुरिम वंशी धुन हो जाएँ
उसकी हाँ में हाँ मिलाएं,
मुक्त गगन सा जीना सीखें
उन पलकों में रहना सीखें !
कैसा अदभुत खेल रचाया
अपनी माया में भरमाया,
मकड़ी जैसे जाल बनाती
संसार स्वयं से उपजाया !
अनिता निहालानी
१२ अप्रैल २०११
भीतर कोई जाग गया है जला के कोई आग गया है, दिव्य अनल शीतल, शुभकारीदिप-दिप होती अंतर बारी !
जवाब देंहटाएंsunder bhaavpoorna rachna .
ये कविता नहीं ,एक ऐसी प्रार्थना है स्वयं को जगानेवाली जैसे कि ठंडे पानी के छींटे डालकर हम अपनी आखें खोलते हैं.इसे तो रोज सुबह पढ़ना होगा.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंदेरी की माफ़ी.....आपको भी पावन पर्व की बधाई.......रचना अपने उत्कर्ष पर है.......गहरे धरातल को छूती है ...........ये खास है -
कैसा अदभुत खेल रचाया
अपनी माया में भरमाया,
मकड़ी जैसे जाल बनाती
संसार स्वयं से उपजाया !