आँख मुंदी और मुक्त हो गए
आँख मुंदी और मुक्त हो गए, ऐसा भला कहीं होता है
तोड़ सकें जीते जी पहरे, ऐसा यहाँ नहीं होता है I
मन के बंधन, तन आलम्बन, रगीं दुनियावी आकर्षण
छोड़ दे सकें हँसते-हँसते, ऐसा भला कहीं होता है I
कतरा-कतरा कर जो जोड़ा, चाहे कितनों का दिल तोड़ा
उसे लुटा दें निज हाथों से, ऐसा यहाँ नहीं होता है I
दासों का सा बीता जीवन, सदा सहा निज मन का शासन
दें आज्ञा अपने स्वामी को, ऐसा भला कहीं होता है I
मुक्ति को आदर्श बनाया, पर जीवन भर उसे भुलाया
उड़ ही जाएँ खग पिंजरों के, ऐसा सदा नहीं होता है I
अनिता निहालानी
२५ अप्रैल २०११
मुक्ति को आदर्श बनाया, पर जीवन भर उसे भुलाया
जवाब देंहटाएंउड़ ही जाएँ खग पिंजरों के, ऐसा सदा नहीं होता है I
sundar abhivyakti padh len gun len comment n den aisa yahan nahi hota hai.
बहुत सुन्दर …………जीवन का यथार्थ्।
जवाब देंहटाएंसही कहा है,आँखें मूंदने से ही अगर मुक्ति मिलती तो अब तक सब मुक्त हो चुके होते.तन की आँखें बंद करने से पहले मन की आँखें खोलनी जरूरी हैं.
जवाब देंहटाएंअनीता जी,
जवाब देंहटाएंबहुत गहरी बात कह दी है आपने.......हाँ सिर्फ आँख मूंदने से ऐसा नहीं होता है.......पर इससे ये नहीं कहा जा सकता की ऐसा होता ही नहीं है......ऐसा होता है मन को साधने से .....और क्या कहूँ आप तो सब जानती ही हैं.......पोस्ट बहुत सुन्दर है ......शानदार |
आँख मुंदी और मुक्त हो गए, ऐसा भला कहीं होता है
जवाब देंहटाएंतोड़ सकें जीते जी पहरे, ऐसा यहाँ नहीं होता है I
..सम्पूर्ण रचना एक गहन यथार्थ को बहुत खूबसूरती से चित्रित करती है. आपके ब्लॉग पर आने से एक बहुत सुकून और आत्मिक शान्ति मिलती है.कुछ व्यस्तताओं की वजह से कुछ सप्ताह आपके ब्लॉग पर न आ सका जिसका मुझे खेद है. आभार
दें आज्ञा अपने स्वामी को, ऐसा भला कहीं होता है ....
जवाब देंहटाएंविनम्रता किसी का भी दिल जीतने में समर्थ है ...
शुभकामनायें !