बरसे नभ से मधुरिम सागर
मचल रहा बाहर आने को
ठांठे मारे एक समुन्दर,
आतुर है सुवास अनोखी
चन्दन वन सी अगन सुलगकर !
नदी बह रही ज्योति उर्मि
भीतर सूरज कई छिपे हैं,
एक शहद में भीगी वाणी
मधुर गीत अभी कहाँ कहे हैं !
झरते कोमल कुसुम कुदुम्बी
वैजन्ती माला की झालर,
जगमग हीरा कोई चमकता
बरसे नभ से मधुरिम सागर !
खाली जब अंतर आकाश
ज्योति बही जाती है अविरल
उसी एक की खुशबू फैली
वही करेगा अंतर अविकल !
वही करेगा अंतर अविकल !
जवाब देंहटाएंbahut sundar ....!
बहुत ही अच्छी रचना........शुभकामनायें ।
जवाब देंहटाएंखाली जब अंतर आकाश
जवाब देंहटाएंज्योति बही जाती है अविरल
उसी एक की खुशबू फैली
वही करेगा अंतर अविकल !
बहुत सुंदर ....
वाह........बहुत बहुत सुन्दर।
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