झर जाते फिर जैसे सपने
है अनोखा खेल उसका,  गूँज
प्यारी पंछियों की
तिर रहे जो नील नभ में, कूक मनहर कोकिलों की !
सुन सकें तो हैं मधुरतम 
कण-कण में जो बसे हुए,
दादुर, मोर, पपीहा के स्वर  
मेघ नीर भी सुर में बरसे !
टिप-टिप छन-छन बरसे बादल 
पवन जरा हौले से बहती,
पीले पत्तों को शाखों से
लाकर भूमि पर धर देती !
छिप जाते पंछी डालों में 
भीगे पंख झाड़ते अपने,
फूल सहा करते बूंदों को 
झर जाते फिर जैसे सपने !
सृष्टि की लीला यह अनुपम
युगों-युगों से चली आ रही,
प्रेम भरे कातर नयनों को
उसी अलख की झलक दिखाती !

अनुपम कृति , उस अलख की झलक दिख रही है ..
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
अमृता जी व मदन जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएं