यज्ञ
एक यज्ञ चलता है बाहर
शुभ कर्म बनें अगरु व चंदन,
एक यज्ञ चलता है भीतर
श्वासों में हो पल-पल सुमिरन !
अग्नि वही समिधा भी वह है
वेदी व ‘होता’ भी वही है,
नव प्रेरणा उमंग ह्रदय की
उलझ-पुलझ में वही सही है !
बरस रहा मेघ के संग जो
नीर वही नदिया में बहता,
तृषा बुझाता आकुल उर की
अखिल विश्व को ढक कर रहता !