मेघ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मेघ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, दिसंबर 6

यज्ञ

यज्ञ 

एक यज्ञ चलता है बाहर 

शुभ कर्म बनें अगरु व चंदन, 

एक यज्ञ चलता है भीतर 

श्वासों में हो पल-पल सुमिरन !  


अग्नि वही समिधा भी वह है 

वेदी व ‘होता’ भी वही है, 

नव प्रेरणा उमंग ह्रदय की 

उलझ-पुलझ में वही सही है ! 


बरस रहा मेघ के संग जो 

नीर वही नदिया में बहता, 

तृषा बुझाता आकुल उर की 

अखिल विश्व को ढक कर रहता !


मंगलवार, अगस्त 16

खुद की ही तलाश में हर दिल

खुद की ही तलाश में हर दिल 


'मैं' जितना 'तुझमें' रहता है 

उतने से ही मिल पाता है, 

खुद की ही तलाश में हर दिल 

संग दूजे जुड़ा करता है !

 

जितना हमने बाँटा जग में 

उतने पर ही होता हक़ है, 

बिन  बिखरे बदली कब बनती 

 इसमें नहीं मेघ  को शक है !

 

अंशी अंश मिलें इस ख़ातिर 

रूप हज़ारों धर लेते हैं,  

खुद को मंदिरों में सजाया 

खुद ही सजदे कर लेते हैं !

 

कोई नहीं सिवाय हमारे 

जिससे तिल भर का नाता है, 

भेद कभी खुल जाए जिस पर 

कण-कण  जगती  का भाता है !

 

सहज हुआ वह बंजारा फिर 

बस्ती-बस्ती गीत सुनाता , 

स्वयं  से मिलने की चाह में 

सारे  जग में घूमा-फिरता  !


सोमवार, अप्रैल 5

वर्षा थमी

वर्षा थमी 

पंछी छोड़ नीड़ निज चहकें 
मेह थमा निकले सब घर से, 
सूर्य छिपा जो देख घटाएँ 
चमक रहा पुनः चमचम नभ में !

जगह जगह छोटे चहबच्चे
 फुद्कें पंछी छपकें बच्चे, 
गहराई हरीतिमा भू की
 शीतलतर पवन के झोंके !

पल भर पहले जो था काला 
नभ कैसा नीला हो आया, 
धुला-धुला सब स्वच्छ नहा कर  
कुदरत का मेला हो आया !

 इंद्रधनुष सतरंगी नभ में
 सुंदरता अपूर्व बिखराता,
 दो तत्वों का मेल गगन में 
स्वप्निल इक रचना रच जाता !

जहाँ-जहाँ अटकीं जल बूँदें 
 रवि कर से टकराकर चमकें, 
जैसे नभ में टिमटिम तारे 
पत्तों पर जलकण यूँ दमकें !

 कहीं-कहीं कुछ धूसर बादल 
छितरे नभ में होकर निर्बल,
 आयी थी जो सेना डट के
 रिक्त हो गयी बरस बरस के ! 

पूर्ण तामझाम संग आयी 
काले मेघा गज विशाल हो, 
हो गर्जन तर्जन रणभेरी 
चमके विद्युत तिलक भाल ज्यों !

शनिवार, फ़रवरी 20

जो बरसती है अकारण

जो बरसती है अकारण 


छू रहा है मखमली सा 

परस कोई इक अनूठा, 

बह रहा ज्यों इक समुन्दर

 आए नजर बस छोर ना !


काँपते से गात के कण 

लगन सिहरन भर रही हो, 

कोई सरिता स्वर्ग से ज्यों 

हौले-हौले झर रही हो  !


एक मदहोशी है ऐसी 

होश में जो ले के आती, 

नाम उसका कौन जाने 

कौन जो करुणा बहाती !


बह रही वह पुण्य सलिला  

मेघ बनकर छा रही है, 

मूक स्वर में कोई मनहर 

धुन कहीं गुंजा रही है !


शब्द कैसे कह सकेंगे 

राज उस अनजान शै का, 

जो बरसती है अकारण 

हर पीर भर सुर प्रीत का !


सुरति जिसकी है सुकोमल 

पुलक कोई है अजानी 

चाँदनी ज्यों झर रही हो 

एक स्पंदन इक रवानी 


बिन कहे कुछ सब कहे जो 

बिन मिले ही कंप भर दे, 

सार है जो प्रीत का वह 

दिव्यता की ज्योति भर दे !

 

गुरुवार, सितंबर 27

उर से ऐसे ही बहे छंद



उर से ऐसे ही बहे छंद


मुक्त गगन है मुक्त पवन है
मुक्त फिजायें गीत सुनातीं,
मुक्त रहे मन चाह यही तो
कदम-कदम पर है उलझाती !

सदा मुक्त जो कैद देह में 
चाहों की जंजीरें बाँधी,
नयन खुले से लगते भर हैं
कहाँ नींद से नजरें जागी !

भावों की हाला पी पीकर
होश गँवाए ठोकर खायी,
व्यर्थ किया पोषण उस 'मैं' का
बुनियाद जिसकी नहीं पायी !

हो निर्भार उड़ा अम्बर में
उस प्रियतम की थाह ना मिली,
छोड़ दिया तिरने को खग सा
विश्रांति हित डाल ना खिली !

तिरने में ही उसे पा लिया
उड़ेंं बादल ज्यों हो निर्बंध,
बरस गये करने जी हल्का
उर से ऐसे ही बहे छंद !

शनिवार, अगस्त 5

श्रावण की पूनम

श्रावण की पूनम

गगन पर छाए मेघ
लगे हरियाली के अंबार
बेला और मोगरे की सुगंध से सुवासित हुई हवा
आया राखी का त्योहार गाने लगी फिजां !
भाई-बहन के अजस्र निर्मल नेह का अजर स्रोत
सावन की जल धाराओं में ही तो नहीं छुपा है !
श्रावण की पूनम के आते ही
याद आते हैं रंग-बिरंगे धागे
कलाइयों की शोभा बढ़ाते
आरती के शुभ थाल
अक्षत रोली से सजे भाल 
बहनों के दिल से निकलती अनमोल प्रार्थनाएं
मन्त्रों सी पावन और गंगा सी विमल भावनाएँ
चन्द्र ग्रहण कर पायेगा न कम
इस उत्सव की उजास
दिलों में बसा नेह का प्रकाश 
बहन का प्रेम और विश्वास
भाई द्वारा दिए रक्षा के आश्वास  !

गुरुवार, मई 11

मन सिमटा आंगन में जैसे


मन सिमटा आंगन में जैसे


फिर घिर आये मेघ गगन पर
फिर गाए अकुलाई कोकिल,
मौसम लौट लौट आते हैं,
जीवन वर्तुल में खोया मन !  

वही आस सुख की पलती है
वही कामना दंश चुभोती,
मन सिमटा आंगन में जैसे
दीवारें चुन लीं विचार की !

मन शावक भी यदि निशंक हो,
 तोड़ कैद उन्मुक्त हुआ सा,
एक नजर भर उसे ताक ले
द्वार खुलेगा तब अनंत का !

निकट कहीं वंशी धुन बजती
टेर लगाता कोई गाये,
निज कोलाहल में डूबा जो  
रुनझुन से वंचित रह जाये !


गुरुवार, मार्च 12

झर जाते फिर जैसे सपने

झर जाते फिर जैसे सपने



है अनोखा खेल उसका,  गूँज प्यारी पंछियों की
तिर रहे जो नील नभ में, कूक मनहर कोकिलों की !

सुन सकें तो हैं मधुरतम
कण-कण में जो बसे हुए,
दादुर, मोर, पपीहा के स्वर  
मेघ नीर भी सुर में बरसे !

टिप-टिप छन-छन बरसे बादल
पवन जरा हौले से बहती,
पीले पत्तों को शाखों से
लाकर भूमि पर धर देती !

छिप जाते पंछी डालों में
भीगे पंख झाड़ते अपने,
फूल सहा करते बूंदों को
झर जाते फिर जैसे सपने !

सृष्टि की लीला यह अनुपम
युगों-युगों से चली आ रही,
प्रेम भरे कातर नयनों को
उसी अलख की झलक दिखाती !


मंगलवार, मार्च 10

धरा गा रही ॐ गीत में


धरा गा रही ॐ गीत में



उसका ही संदेश सुनाते
पंछी जाने क्या कह जाते,
प्रीत भरे अपने अंतर में
वारि भरे मेघ घिर जाते !

मूक हुए तरु झुक जाते जब
उन चरणों में फूल चढ़ाते,
हवा जरा हिचकोले देती
झूमझूम कर नृत्य दिखाते !

तिलक लगाता रोज भाल में
रवि भी मुग्ध हुआ प्रीत में,
चन्द्र आरती थाल सजाता
धरा गा रही ॐ गीत में !

कण-कण करता है अभिनन्दन
अनल, अनिल, भू, नीर, गगन
दिशा –दिशा में वही बसा है
पग-पग पर उसके ही चरण !  

मंगलवार, फ़रवरी 3

प्रीत की बौछार

प्रीत की बौछार


आज हुई है जो बात फिर कभी वह बात न होगी
आज की रात जैसी हसीं कभी रात न होगी
आज चाँद ने खोल दिया है अन्तर अपना
चाँदनी की हो रही बरसात फिर ऐसी बरसात न होगी
आज हुई है किसी मीत से मुलाकात
शायद फिर ऐसी मुलाकात न होगी
आज बरसा है टूट कर मेघ शायद फिर न बरसे
आज पुकारा है किसी ने दूर से
फिर यह घटे न घटे
आज बजती हैं झाँझरें और खिलते हैं कमल

आज सजती हैं बहारें और उमड़े आते हैं बादल !

शनिवार, नवंबर 15

तृषा जगाये हृदय अधीर

तृषा जगाये हृदय अधीर


वरदानों की झड़ी लगी है
देखो टपके मधुरिम ताप,
अनदेखा कोई लिपटा है
घुल जाता हर इक संताप !

गूँज रहे खग स्वर अम्बर में
मदिर गंध ले बहा समीर,
पुलक जगी तृण-तृण में कैसी
तृषा जगाये हृदय अधीर !

मौन हुआ है मेघ खो गया
नील सपाट हुआ नभ सारा,
तुहिन बरसता दोनों बेला
पोषित हर नव पादप होता !

प्रकृति अपने कोष खोलती
हुई खत्म मेघों की पारी,
गंध लुटाने, पुष्प खिलाने
आयी अब वसुधा की बारी !





मंगलवार, अगस्त 12

पढ़ पाते बूंदों की भाषा

पढ़ पाते बूंदों की भाषा



बरसे मेघा भीगा अंतर
कोंपल-कोंपल खिली हृदय की,
टिप-टिप रिमझिम बूंदों के स्वर
सुन लहरायी धड़कन दिल की !

जाने कौन लोक से लाये
मेघ संदेसा उस प्रियतम का,
झूम रहे हैं पादप, तरुवर
पढ़ पाते बूंदों की भाषा !

हैं सुकुमार पुष्प बेला के
सहज मार वारि की सहते,
नभचर छिपे घनी शाखा में
चकित हुए से अम्बर तकते !

दूर हैं जो प्रियजन निज घर से
स्मृति दिलाती झड़ी सुहानी,
शीतल, निर्मल सी इक आभा
पहुंचे उन तक अनकथ वाणी !

धरा उमगती खिलखिल हँसती
पाकर परस नेह का सजती,
खेली जाती एक नाटिका
तृप्त हो रही तृषा युगों की !

बुधवार, जून 11

घटता है जो इक ही पल में

घटता है जो इक ही पल में



कभी अचानक झर जाता ज्यों
 मेघ भरा हो भाव नीर से,
रिस जाता अमि अंतर घट का
रहा अछूता जो पीड़ा से !

सहज कभी पुरवाई बहती
खुल जाते सब बंद कपाट,
भीतर बाहर मधु गंध इक
उमड़ संवारे प्राण सपाट !

घोर तिमिर में द्युति लहर ज्यों
पथ प्रशस्त कर देती पल में,
भर जाता अनुराग अनोखा
कोई आकर हृदय विकल में !

मुस्काता ज्यों शशि झील में
झलक कभी आ जाती उसकी,
 स्मृति नहीं, ना ही भावना
घटता है जो इक ही पल में !