भोजन के पश्चात एक घंटा विश्राम के लिए था. दोपहर एक बजे से पुनः साधना का
क्रम शुरू होता जो दो बजे तक चलता. फिर ढाई से साढ़े तीन बजे तक तथा पांच मिनट के
विश्राम के बाद शाम पांच बजे तक पुनः चलता. लगातर इतने समय बैठा रहना व श्वास पर
ध्यान देना इतना सरल कार्य नहीं था, पैरों में जगह-जगह पीड़ा होने लगती, आसन बदलते,
धीरे-धीरे इधर-उधर पैरों को मोड़ते उसी स्थान पर किसी तरह स्वयं को सम्भाले बैठे
रहते. आँख भी नहीं खोलनी थी, कुछ मिनट के प्रारम्भिक निर्देशों के बाद स्वयं ही
ध्यान करना होता था. पुराने साधक आराम से बैठे रहते. आखिर गोयनका जी की आवाज आती,
अन्निचा..एक पद बोलते और सत्र समाप्त होता.
पांच बजे का घंटा राहत लाता, यह दिन के अंतिम
भोजन अर्थात शाम की चाय का समय था. जिसके साथ कोई एक फल तथा मूड़ी दी जाती जिसमें
दो-चार दाने मूँगफली के और भुजिया पड़ी होती. सभी बहुत स्वाद लेकर इस का आनंद लेते.
उसके बाद सभी शाम की हवा का आनंद लेते टहलने लगते. धीरे-धीरे चलते हुए अपने भीतर
खोये साधक अन्यों की उपस्थिति से बेखबर प्रतीत होते थे. सभी के मन का पुनर्निर्माण
आरम्भ हो चुका था. छह बजे पुनः घंटी बजती और सात बजे तक ध्यान चलता. फिर पांच मिनट
का विश्राम तथा उसके बाद गोयनकाजी का प्रवचन आरम्भ होता जो साढ़े आठ बजे तक चलता,
जिसमें दिन भर में हुई साधना के बारे में तथा आने वाले दिन के लिए साधना के
निर्देश दिए जाते तथा विधि को समझाया जाता. यह प्रवचन ज्ञानवर्धक तो था ही,
प्रेरणादायक भी था. जिसके बाद पुनः पांच मिनट का विश्राम फिर रात्रि पूर्व का
अंतिम ध्यान.
नौ बजे घंटा बजता और जिन्हें साधना संबंधी कोई
प्रश्न पूछना हो वह आचार्य या आचार्या से साढ़े नौ बजे तक पूछ सकते थे. शेष कमरे
में आकर सोने की तैयारी करते. पर दिन भर ध्यान करने से सचेत हुआ मन नित नये स्वप्नों
की झलक दिखाता. बीते हुए समय की स्मृतियाँ इतने स्पष्ट रूप से सम्मुख आतीं मानो आज
ही वह घटना घट रही हो. जिनके साथ कभी मन मुटाव हुआ था उनसे सुलह हो गयी. मन के
भीतर एक अपार संसार है इसका प्रत्यक्ष अनुभव होने लगा. एक रात्रि तो हजारों कमल
खिलते देखे. हल्के बैगनी रंग के फूल फिर रक्तिम आकृतियाँ...वह रात्रि बहुत विचलित
करने वाली थी. आंख खोलते या बंद करते दोनों समय चित्र मानस पटल पर स्पष्ट रूप से
चमकदार रंगों में आ रहे थे. ऐसी सुंदर कलाकृतियाँ शायद कोई चित्रकार भी न बना पाए.
हरे-नीले शोख रंगों की आकृतियाँ बाद में भय का कारण बनने लगीं. उनका अंत नहीं आ
रहा था. फिर कुछ लोग दिखने लगे. एक बैलगाड़ी और कुछ अनजान स्थानों के दृश्य. जगती
आँखों के ये स्वप्न अनोखे थे. एक बार तो आँख खोलने पर मच्छर दानी के अंदर ही आकाश
के तारे दिखने लगे, फिर उठकर चेहरा धोया, मून लाइट जलाई. रूममेट भी उठ गयी थी पर
कोई बात तो करनी नहीं थी, सोचा आचार्यजी के पास जाऊँ पर रात्रि के ग्यारह बज चुके
थे. पहली बार घर वालों का ध्यान भी हो आया. जिनसे पिछले कुछ दिनों से कोई सम्पर्क
नहीं था. फिर ईश्वर से प्रार्थना की (जिसके लिए मना किया गया था) तय किया कि कल से
आगे कोई ध्यान नहीं करूंगी. वह छठा दिन था. बाकी चार दिन सेवा का योगदान ही दूंगी.
लगभग दो बजे तक इसी तरह नींद नहीं आयी, बाद में सो गयी. सुबह चार बजे नहीं उठ सकी,
सोच लिया था अब आगे साधना करनी ही नहीं है. छह बजे मंगल पाठ के वक्त गयी. आधा घंटा
बैठी रही. आठ बजे के ध्यान से पूर्व ही आचार्या से मिलकर जब सारी बात कही तो शांत
भाव से उन्होंने कहा, यह तो बहुत अच्छा हो रहा है, मन की गहराई में छिपे अनेक तरह
के संस्कार बाहर निकल रहे हैं. इसमें डरने की जरा भी आवश्यकता नहीं है, आपको तो
फूल दिखे, किसी-किसी को भूत-प्रेत दीखते हैं तथा सर्प आदि भी. उन्होंने कहा, समता
में रहना ही तो सीखने आयी हैं. यदि भविष्य में ऐसा हो तो मात्र साक्षी भाव से हाथ
व पैर के तलवे पर ध्यान करना ठीक होगा. उनकी बात सुनकर पुनः पूरे जोश में साधना
में रत हो गयी. विपासना का मूल सिद्धांत ‘साक्षी’ और ‘समता’ के रूप में याद रखने
को कहा था. अगले दिन जब ऐसा हुआ तो कुछ भी विचित्र नहीं लगा, श्वास पर ध्यान देने
व उनके बताये अनुसार ध्यान करने से सब ठीक हो गया.
Very good experience
जवाब देंहटाएंthanks Didi
हटाएंसारे भाग मनोयोग से पढ़ रही हूँ !
जवाब देंहटाएंस्वागत व बहुत बहुत आभार प्रतिभा जी !
हटाएंसुन्दर वर्णन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा . मैने भी रजिस्टर किया है इस कोर्स को और व्यग्र हूँ खट्टे मीठे अनुभवों के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुभकामनायें...
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