कौन भर रहा प्रीत प्राण में
कौन सिखाए उड़ना खग को
नीड़ बनाना व इतराना,
तिरना हौले-हौले नभ में
दूर देश से वापस आना !
कौन भर रहा प्रीत प्राण में
शावक जो पाता हिरणी से,
कौन खड़ा करता वृक्षों को
पोषण पायें वे धरणी से !
सागर से जाकर मिलना है
नदियों को यह चाहत देता,
प्यास जगाता पहले उर में
जल शीतल बन राहत देता !
जाने कब से चला आ रहा
सृष्टि चक्र यह अनुपम अविरत,
रस की ये बौछारें रिमझिम
टपक रही जो आभा प्रमुदित !
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसबमे उसकी छाया, कण-कण में वही समाया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ....
कल 15 /मार्च/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
अति सुंदर। सृष्टिचक्र सचमुच अनुपम है।
जवाब देंहटाएंओंकार जी, संध्या जी यशवंत जी और अनुराग जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसृष्टि की नुपम माया ... प्रभू की अनुकम्पा को बाखूबी लिखा है ... शब्दों में ... अति सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंसत् और चित् के साथ प्रकृति प्रदत्त आनन्द का समावेश जीवन को पूर्णता देता है -जीव मात्र के लिए यही संदेश है ,मनुष्य ही है जो प्रायः भटक जाता है .
जवाब देंहटाएंअद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .
जवाब देंहटाएंदिगम्बर जी, प्रतिभा जी व मदन जी, स्वागत व आभार !
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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