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गुरुवार, मई 15

कृतज्ञता का फूल


कृतज्ञता का फूल 


समय से पूर्व

और आवश्यकता से अधिक 

जब मिलने लगे 

जो भी ज़रूरी है 

तो मानना चाहिए कि 

ऊपरवाला साथ है 

और कृपा बरस रही है !


कृतज्ञता का फूल 

जब खिलने लगे अंतर में 

तो जानना चाहिए कि 

मन पा रहा है विश्राम 

और आनंद-गुलाल बिखर रहा है !


सब मिला ही हुआ है 

यह अनुभव में आ जाये 

तो छूट जाती है हर चाह

राह के उजाले गवाह बन जाते 

कि विश्वास का दीपक ह्रदय में 

जलने लगा है !


मंगलवार, अप्रैल 1

अंतहीन सजगता

अंतहीन सजगता 


अपने में टिक रहना है योग  

योग में बने रहना समाधि 

सध जाये तो मुक्ति  

मुक्ति ही ख़ुद से मिलना है 

हृदय कमल का खिलना है 

क्योंकि ख़ुद से मिलकर  

उसे जान सकते हैं 

‘स्व’ से शुरू हुई यात्रा इस तरह 

‘पर’ में समाप्त होती  

पर थमती वहाँ भी नहीं 

जो अनंत है 

अज्ञेय है 

उसे जान 

कुछ भी तो नहीं जानते 

यही भान होता  

अध्यात्म की यात्रा में 

हर पल एक सोपान होता 

हर पल चढ़ना है 

सजग होके बढ़ना है 

कहीं कोई लक्ष्य नहीं 

कोई आश्रय भी नहीं 

अंतहीन सजगता ही

अध्यात्म है 

यही परम विश्राम है 

यहीं वह, तू और मैं का

 संगम है 

यहीं मिट जाता 

हर विभ्रम है ! 


बुधवार, जनवरी 15

राम में विश्राम या विश्राम में राम

राम में विश्राम या विश्राम में राम


भीग जाता है अंतर 

जब उस एक के साथ एक हो जाता है 

समाप्त हो जाती है 

कुछ होने, पाने, बनने की दौड़ 

जब हर साध उठने से पहले ही 

हो जाती है पूर्ण 

कुछ होने में अहंकार है 

कुछ न होने में आत्मा 

कुछ पाने में भय है खो जाने का 

छोड़ने में आनंद 

कुछ बनने में श्रम है 

 जो हैं उसमें विश्राम 

और विश्राम में है राम 

तब राम ही मार्ग दिखाते हैं 

पथ जीवन का सुझाते हैं 

ध्यान में मिलते 

जीवन में संग उन्हें पाते हैं 

संत जन इसी लिए एक-दूजे को 

‘राम राम जी’ कहकर बुलाते हैं ! 


बुधवार, अप्रैल 12

एक प्यास जो अंतहीन है


एक प्यास जो अंतहीन है


एक ललक अम्बर  छूने की 

एक लगन उससे मिलने की, 

एक प्यास जो अंतहीन है 

एक आस खुद के खिलने की !


सत्य अनुपम मन गगन समान 

उसमें मुझमें न भेद कोई, 

जल में राह मीन प्यासी क्यों 

खिल जाता वह ठहरा है जो !


पाने की हर बात भरम  है 

जो भी अपना मिला हुआ है, 

बनने की हर आस भुलाती 

हर उर भीतर खिला हुआ है !


भीतर ही विश्राम सिंधु है 

भर लें जिससे दिल की गागर, 

गर उससे तृप्ति नहीं पायी 

परम भेद कब हुआ उजागर !


गुरुवार, अप्रैल 9

नींद


नींद 


कल रात फिर नींद नहीं आयी 
नींद आती है चुपचाप 
दबे पावों... और कब छा जाती है 
पता ही नहीं लगने देती 
कई बार सोचा 
नींद से हो मुलाकात 
कुछ करें उससे दिल की बात 
प्रतीक्षा ही प्रतीक्षा थी 
उसके आने की कहीं दूर-दूर तक आहट नहीं थी 
नींद आने से पहले ही होश को सुला देती है 
स्वप्नों में खुद को भुला देती है 
कभी पलक मूँदते ही छा जाती है खुमारी 
अब जब करते हैं उसके स्वागत की तैयारी
तो वह छल करती है 
वही तो है जो रात भर तन में बल भरती है 
चहुँ ओर दौड़ते मन को चंद घड़ी देती है विश्राम 
जहाँ इच्छाओं का जमावड़ा बना ही रहता है 
कोई न कोई अड़ियल ख्याल खड़ा ही रहता है 
जहाँ विचारों के हवा-महल बनते बिगड़ते हैं 
पल में ही मन के उपवन खिलते-उजड़ते हैं 
नींद की देवी चंद घड़ियां अपनी छाया में पनाह देती है 
पर कल रात वह रुष्ट थी क्या 
जो भटके मन को घर लौटने की राह देती है ! 


सोमवार, जुलाई 3

जीवन की शाम

जीवन की शाम 

कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता

मकड़जाल जो खुद ही बुना है
और अब जिसमें दम घुटता है
जमीनें जो कभी खरीदी गयीं थी
इमारतें जो कभी बनवायी गयी थीं
जिनमें कोई नहीं रहता अब
जो कभी ख़ुशी देने की बनीं थीं सबब
अब बनी हैं जी का जंजाल
घड़ी विश्राम की आयी
 समेटना है संसार !

हाथों में अब वह ताकत नहीं
पैरों को राहों की तलाश नहीं
अब तो मन चाहता है
सुकून के दो चार पल
और तन चाहता है
इत्मीनान से बीते आज और कल
खबर नहीं परसों की भी
कौन करे बात बरसों की
बिन बुलाये चले आते हैं
कुछ अनचाहे विचार आसपास
 होने लगा है कमजोरी का अहसास

पहले की सी सुबह अब भी होती है
सूरज चढ़ता है, शाम ढलती है
पर नहीं अब दिल की हालत सम्भलती है
कितने बसंत बीते...याद नहीं 
मन आज थका सा लगता !

उन सभी बुजुर्गों को समर्पित जो वृद्ध हो चले हैं.


शनिवार, दिसंबर 31

नये वर्ष में गीत नया हो


नये वर्ष में गीत नया हो 


राग नया हो ताल नयी हो 
कदमों में झंकार नयी हो, 
रुनझुन रिमझिम भी पायल की 
उर में  करुण पुकार नयी हो !

अभी जहाँ पाया विश्राम 
 बसते उससे आगे राम, 
क्षितिजों तक उड़ान भर ले जो 
पंख लगें उर को अभिराम !

अतल मौन से जो उपजा हो 
सृजें वही मधुर संवाद,
उथले-उथले घाट नहीं अब 
गहराई में पहुंचे याद !

नया ढंग अंदाज नया हो 
खुल जाएँ सिमसिम से द्वार 
नये वर्ष में गीत नया हो
बहता वह बनकर उपहार !

अंजुरी भर-भर बहुत पी लिया  
अमृत घट वैसा का वैसा,
अब अंतर में भरना होगा 
दर्पण में सूरज के जैसा !




मंगलवार, अगस्त 23

छोटा सा जीवन यह सुंदर

छोटा सा जीवन यह सुंदर

थम कर पल दो पल बैठें हम
होने दें जो भी होता है,
रुकने का भी है आनंद
चलना तभी मजा देता है !

स्वयं ही चलती रहतीं श्वासें
जीवन भीतर धड़क रहा है,
जिसने सीखा है विश्राम
दौड़ लगाना व्यर्थ हुआ है !

छोटा सा जीवन यह सुंदर
अल्प जरूरत है इस दिल की,
काफी से भी ज्यादा पाया
कुदरत सदा बांटती रहती !


गुरुवार, नवंबर 26

झर सकता है वही निरंतर

 झर सकता है वही निरंतर

यह कैसी खलिश..यह हलचल सी क्यों है
जो लौटा घर.. उर चंचल सा क्यों है

बादल ज्यों बोझिल हो जल से
पुष्प हुआ नत निज सौरभ से,
बंटने को दोनों आतुर हैं
ऐसी ही नजरें कातर हैं !

प्रेम सुधा का नीर बहाएँ  
सुरभि सुवासित बन कर जाएँ,
कृत्य किसी की पीड़ा हर लें  
वही तृप्त अंतर कर जाएँ !

चलते-चलते कदम थमे थे
पल भर ही पाया विश्राम,
पंख लगे पुनः पैरों में
यह चलना कितना अभिराम !

भर ही डाली झोली उसने
इतना भार सम्भालें कैसे,
रिक्त लुटाकर ही करना है
पुष्प और बदली के जैसे !

दे ही डालें सब कुछ अपना
फिर भी पूर्ण रहेगा अंतर,
शून्य हुआ जो अपने भीतर
झर सकता है वही निरंतर !

कैसी अद्भुत बेला आई
भीतर नयी कसक जागी है,
शीतल अग्नि कोमल पाहन
जैसे बिन ममता रागी है ! 

बुधवार, अक्टूबर 7

हम तो घर में रहते हैं


हम तो घर में रहते हैं

जग की बहुत देख ली हलचल
कहीं न पहुँचे कहते हैं,
पाया है विश्राम कहे मन
हम तो घर में रहते हैं !

जिसके पीछे दौड़ रहा था
छाया ही थी एक छलावा,
घर जाकर यह राज खुला
माया है जग एक भुलावा !

कदम थमे तब दरस हुआ
प्रीत के अश्रु बहते हैं,
रूप के पीछे छिपा अरूप
उससे मिलकर रहते हैं !

गुरुवार, अक्टूबर 1

बापू की पुण्य स्मृति में

बापू की पुण्य स्मृति में


रामनाम में श्रद्धा अटूट, सबका ध्यान सदा रखते थे
माँ की तरह पालना करते, बापू सबके साथ जुड़े थे !

सारा जग उनका परिवार, हँसमुख थे वे सदा हँसाते
योग साधना भी करते थे, यम, नियम दिल से अपनाते !

बच्चों के आदर्श थे बापू, एक खिलाड़ी जैसा भाव
हर भूल से शिक्षा लेते, सूक्ष्म निरीक्षण का स्वभाव !

निर्धन के हर हाल में साथी, हानि में भी लाभ देख लें
सोना, जगना एक कला थी, भोजन नाप-तोल कर खाते !

छोटी बातों से भी सीखें, हर वस्तु को देते मान
प्यार का जादू सिर चढ़ बोला, इस की शक्ति ली पहचान !

समय की कीमत को पहचानें, स्वच्छता से प्रेम बहुत था
मेजबानी में थे पारंगत, अनुशासन जीवन में था !

पशुओं से भी प्रेम अति था, कथा-कहानी कहते सुनते
मितव्ययता हर क्षेत्र में, उत्तरदायित्व सदा निभाते !

मैत्री भाव बड़ा गहरा था, पक्के वैरागी भी बापू
थी आस्था एक अडिग भी, बा को बहुत मानते बापू !

विश्राम की कला भी सीखी, अंतर वीक्षण करते स्वयं का
एक महान राजनेता थे, केवल एक भरोसा रब का !

अनासक्ति योग के पालक, परहित चिन्तन सदा ही करते
झुकने में भी देर न लगती, अड़े नहीं व्यर्थ ही रहते !

करुणा अंतर में गहरी थी, नव चेतना भरते सबमें
प्रेम करे दुश्मन भी जिससे, ऐसे प्यारे राष्ट्रपिता थे !


बुधवार, जुलाई 8

धरती और आकाश गा रहे

धरती और आकाश गा रहे

अब हमने खाली कर डाला
अपने दिल की गागर को,
अब तुझको ही लाना होगा
इसमें दरिया, सागर को !

अब न कोई सफर शेष है
कदमों को विश्राम मिला,
अब तुझको ही पहुंचाना है
शबरी को जहाँ राम मिला !

अब न जोड़ें अक्षरमाला
कविता, गीत, कहानी में,
झरना होगा स्वयं ही तुझको
इन लफ्जों की रवानी में !

अब क्या चाहें मांग के तुझको  
पूर्ण हुआ सारे अरमान,
धरती और आकाश गा रहे
संग हंसे दिन रात जहान !

तितली, पादप बने हैं भेदी
हरी दूब देती संदेश,
अब तू कहाँ छिपा है हमसे
सुनें जरा अगला आदेश !

अब तो जीना मरना सम है
कैसी घड़ी अनोखी है,
इक चट्टान चैन की जैसे
क्या ये तेरे जैसी है !