नन्हा सा यह दिल बेचारा 
झेलता आया है न जाने कितने तूफान 
कभी उबला क्रोध की अग्नि पर 
कभी सहा ठंडापन उपेक्षा का 
कैसे-कैसे भावों का हुआ शिकार 
सहे नादान इन्सान के अत्याचार  
क्या नहीं उठाया था कांपते हाथों में खंजर 
भूल गये, जब फेरी थीं आँखें 
देख पीड़ितों का मंजर 
लालसा के ज्वर से ग्रस्त डोलता रहा 
कभी उलाहनों से भरा, कभी डरता रहा 
दिल ने देखे हैं सचमुच अनगिनत पड़ाव 
और पायी है कभी-कभार ही कोई शीतल छांव
प्रेम पाने में भी सदा सिकुड़ा रहा 
देने में पीछे हटता रहा 
न जाने किस सुख की तलाश में 
दुःख के बीज ही भीतर भरता रहा
आँसूं भर आये पलकों में जितनी बार 
दिल भी रोया होगा जार-जार 
ईर्ष्या की चुभी थी इसे ही कटार 
सुख को चाहा पर थमकर न बैठा 
बेवजह ही रहा ऐंठा-ऐंठा 
दिल ही तो है आखिर कब तक सहेगा 
कभी तो फरियाद रोकर खुद की कहेगा..

सुंदर!
जवाब देंहटाएंमनोज जी, स्वागत व आभार....
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्बागत व आभार ओंकार जी
हटाएंदिल ही तो है आखिर कब तक सहेगा
जवाब देंहटाएंकभी तो फरियाद रोकर खुद की कहेगा..
बहुत सुंदर ईर्ष्या की कतार से घायल दिल को मेरी संवेदनाएं.
भावपूर्ण प्रस्तुति.
शुक्रिया रचना जी..
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