मौसम
आते हैं जाते हैं 
वृक्ष पुनः पुनः बदला करते हैं रूप 
हवा कभी बर्फीली हो चुभती है 
कभी तपाती आग बरसाती सी..
शुष्क है धरा... फिर 
भीग-भीग जाती है  
निरंतर प्रवाह से जल धार के
मन के भी मौसम होते हैं और तन के भी 
बचपन भी एक मौसम है 
और एक ऋतु तरुणाई की 
जब फूटने लगती हैं कोंपलें मन के आंगन में 
और यौवन में झरते हैं हरसिंगार 
फिर मौसम बदलता है 
कुम्हला जाता है तन
थिर हो जाता है मन
कैसा पावन हो जाता प्रौढ़ का मन
गंगा के विशाल पाट जैसा चौड़ा 
समेट लेता है 
छोटी बड़ी सब नौकाओं को अपने वक्ष पर 
सिकुड़ जाता है तन वृद्धावस्था में
पर फ़ैल जाता है मन का कैनवास 
सारा जीवन एक क्षण में उतर आता है 
मृत्यु के मौसम में..
.jpg)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें