मन स्वयं समिधा बन कर जलता
हर अनुभव है इक गुलाब सा 
रंग, सुगंध लुटाकर झरता, 
या फिर कोई दीप जला हो 
पथ में नव उजास हो भरता !
स्मृतियों में सुवास रह
जाती 
जीवन सरस हुआ सा पलता, 
आभा में पाता  आश्वास 
मन स्वयं समिधा बन कर जलता
! 
नन्हे-नन्हे कदम शिशु के 
अंगुली थामे डगमग चलता,
कतरा-कतरा सघन बनेगा 
बूंद-बूंद ले मेघ बरसता !

 
बहुत सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मधुलिका जी..
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