मंगलवार, अक्तूबर 4

माँ

माँ


शिव रूप में जो निर्निमेष तकता रहता है
माँ बनकर वही अस्तित्त्व समेट लेता है निज आश्रय में
अभय कर देती है माँ शिशु को
स्वीकारती है उसकी माटी से सनी काया 
बन जाती है प्रेम स्वरूपा आनन्दमयी छाया
शक्ति स्वरूपा भर देती है अदम्य साहस और बल
अष्टभुजा धारिणी, महिषासुरमर्दिनी माँ !
समृद्धि और सम्पन्नता की दात्री बन
फिर खोल देती है निज अकूत भंडार
ज्ञान बन कर कभी राह दिखाती है
अंधकार में घिरे मन को
आत्मा के उजाले में ला बिठाती है
हर रूप उसका मनोहारी है
जो परमेश्वरी है.. वही आत्मनिवासिनी है !

2 टिप्‍पणियां: