पा परस उसका सुकोमल
बह रहा है अनवरत
जो
एक निर्झर
गुनगुनाता,
क्यों नहीं उसके
निकट जा
दिल हमारा चैन
पाता !
झूमती सी गा रही
जो
हर कहीं सोंधी
बयार,
पा परस उसका
सुकोमल
क्यों न समझे
झरता प्यार !
निकट ही जो शून्य
बनकर
बन अगोचर थाम
रखता,
भूल जाता बेखुदी
में
क्यों न उसका मान
रखता !
जो बरसता प्रीत
बनकर
संग है आशीष बनकर,
क्यों नहीं नजरें
हमारी
चातकी सी टिकी
उसपर !
बहुत खूब ,
जवाब देंहटाएंहिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रही हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
मानती हैं न ?
मंगलकामनाएं आपको !
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
स्वागत व आभार सतीश जी, सचमुच आत्मअभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलती है वह कृपा का प्रसाद है..आपको भी शुभकामनायें !
हटाएंसुन्दर भाव
जवाब देंहटाएंइतने दिनों के बाद आपको अपने ब्लॉग पर पाकर हर्षित हूँ..स्वागत व आभार !
हटाएंनिकट ही जो शून्य बनकर
जवाब देंहटाएंबन अगोचर थाम रखता,
भूल जाता बेखुदी में
क्यों न उसका मान रखता !....बहुत अच्छी पंक्तियाँ !
स्वागत व प्रतिक्रिया के लिए आभार ऋता जी !
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