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बुधवार, फ़रवरी 19

प्रेम



प्रेम 



प्रेम की नन्ही सी किरण 
हर लेती है सदियों के अंधकार को 
हल्की सी फुहार प्रीत की 
सरसा देती है मन माटी को 
प्रेम ‘उसका’ पता है 
प्रेम जगे जिस अंतर 
वहां कलियाँ  फूटती ही रहती हैं 
सद्भाव की 
जिसने पाया हो परस 
इसकी अनमोल छुवन का 
नहीं रह जाता वह अजनबी 
इस अनन्त सृष्टि  में 
बढ़ाता है हर फूल 
उसकी ओर मैत्री का हाथ 
हवा सहला देती है 
श्रम से भीगे मुख को 
बदलियाँ छाँव बनकर
 हर लेती हैं धूप की गर्माइश 
वह बांटता चलता है 
निश्च्छल मुस्कान 
और बन जाती है 
प्रेम ही उसकी पहचान !

रविवार, जुलाई 2

पा परस उसका सुकोमल



पा परस उसका सुकोमल

बह रहा है अनवरत जो
एक निर्झर गुनगुनाता,
क्यों नहीं उसके निकट जा
दिल हमारा चैन पाता !

झूमती सी गा रही जो
हर कहीं सोंधी बयार,
पा परस उसका सुकोमल
क्यों न समझे झरता प्यार !

निकट ही जो शून्य बनकर
बन अगोचर थाम रखता,
भूल जाता बेखुदी में
क्यों न उसका मान रखता !

जो बरसता प्रीत बनकर
संग है आशीष बनकर,
क्यों नहीं नजरें हमारी
चातकी सी टिकी उसपर ! 

गुरुवार, जुलाई 17

अँधेरे के पार


अँधेरे के पार



प्रकाश की एक दूधिया नदी
बहती है भीतर
जिसका कोई तट नजर नहीं आता
एक अंतहीन सन्नाटे की गूँज
जिसकी लहरों में सुनाई देती है
अदृश्य कमलों की गंध भी चली आती है
खो जाते हैं स्पंदन.. और
जम जाता है शिराओं में बहता रक्त
थम जाता है ज्यों सृष्टि का सारा व्यापार
 एक मधुर रस टपकता है
दिग दिगंत से
सहेजते हैं अदेखे हाथ
महसूस होती है छुअन बन परस
नृत्य घटता है कहीं गहराइयों में
नजर नहीं आता पर कोई नर्तक !