प्रेम
प्रेम की नन्ही सी किरण
हर लेती है सदियों के अंधकार को
हल्की सी फुहार प्रीत की
सरसा देती है मन माटी को
प्रेम ‘उसका’ पता है
प्रेम जगे जिस अंतर
वहां कलियाँ फूटती ही रहती हैं
सद्भाव की
जिसने पाया हो परस
इसकी अनमोल छुवन का
नहीं रह जाता वह अजनबी
इस अनन्त सृष्टि में
बढ़ाता है हर फूल
उसकी ओर मैत्री का हाथ
हवा सहला देती है
श्रम से भीगे मुख को
बदलियाँ छाँव बनकर
हर लेती हैं धूप की गर्माइश
वह बांटता चलता है
निश्च्छल मुस्कान
और बन जाती है
प्रेम ही उसकी पहचान !