उन अँधेरों से डरें क्यों
खो गया है घर में कोई
चलो उसे ढूँढ़ते हैं
बह रही जो मन की सरिता
बांध कोई बाँधते हैं
आँधियों की ऊर्जा को
पाल में कैसे समेटें
उन हवाओं से ही जाकर
राज इसका पूछते हैं
इक दिया,
कुछ तेल, बाती जब तलक ये पास अपने
उन अँधेरों से डरें
क्यों खुद जो रस्ता खोजते हैं
हँसे पल में पल में रोए
मन शिशु से कम नहीं है
दूर हट के उस नादां की
हरकतें हम देखते हैं
कुछ नहीं है पास खुद के
बाँस जैसी खोखली जो
उस अकड़ को शान से चेहरे
बदलते देखते हैं
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार ओंकार जी !
हटाएंकुछ नहीं है पास खुद के बाँस जैसी खोखली जो
जवाब देंहटाएंउस अकड़ को शान से चेहरे बदलते देखते हैं
बहुत सुन्दर और सटीक
स्वागत व आभार संगीता जी..
हटाएंआँधियों की ऊर्जा को पाल में कैसे समेटें
जवाब देंहटाएंउन हवाओं से ही जाकर राज इसका पूछते हैं
बहुत सुंदर।
स्वागत व आभार ज्योति जी !
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अरुण जी !
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