फ़लसफ़ा ज़िंदगी का
कभी सुकून कभी बेताबी बन कर छा गया
वह क्या था जो अक्सर इस दिल को भरमा गया
पहरों बैठ कर सुलझाये थे सवाल जिसके
वह दिलेफूल तो इक पल में ही मुरझा गया
सही था ग़लत मान बैठे थे जिसको कब से
फ़लसफ़ा ज़िंदगी का इक बच्चा समझा गया
कभी तन्हा तो कभी सजी महफ़िलें संग-संग
इस उड़नखटोले पर भला कौन बैठा गया
अंधेरे बढ़ गए दुनिया में यकीं जब हुआ
कौन चुपचाप आके दिल को फिर सहला गया
हारा सच जीत झूठ की हुई होगी जग में
सच का बिरवा ख़ुदा फिर से मन में लगा गया
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-04-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4414 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चा मंच की शोभा बढ़ाएगी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबाग
बहुत बहुत आभार!
हटाएंसही था ग़लत मान बैठे थे जिसको कब से
जवाब देंहटाएंफ़लसफ़ा ज़िंदगी का इक बच्चा समझा गया... वाह! बहुत बढ़िया 👌
स्वागत व आभार अनीता जी!
हटाएंsarthak sunder rachna !!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अनुपमा जी !
हटाएंबुहत सुंदर रचना अनीता जी ...वाह
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अलकनंदा जी!
हटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी!
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