बुधवार, अप्रैल 27

फ़लसफ़ा ज़िंदगी का



फ़लसफ़ा ज़िंदगी का


कभी सुकून कभी बेताबी बन कर छा गया 

वह क्या था जो अक्सर इस दिल को भरमा गया 


पहरों बैठ कर सुलझाये थे सवाल जिसके 

वह दिलेफूल तो इक पल में ही मुरझा गया 


सही था ग़लत मान बैठे थे जिसको कब से 

फ़लसफ़ा ज़िंदगी का इक बच्चा समझा गया 


कभी तन्हा तो कभी सजी महफ़िलें संग-संग 

इस उड़नखटोले पर भला कौन बैठा गया 


अंधेरे बढ़ गए दुनिया में यकीं जब हुआ 

कौन चुपचाप आके दिल को फिर सहला गया 


हारा सच जीत झूठ की हुई होगी जग में 

सच का बिरवा ख़ुदा फिर से मन में लगा गया 


9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-04-22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4414 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति चर्चा मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद
    दिलबाग

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  2. सही था ग़लत मान बैठे थे जिसको कब से
    फ़लसफ़ा ज़िंदगी का इक बच्चा समझा गया... वाह! बहुत बढ़िया 👌

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  3. बुहत सुंदर रचना अनीता जी ...वाह

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