रविवार, नवंबर 20

एक पुकार मिलन की जागे


एक पुकार मिलन की जागे

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कैसे सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल जायेंगे उद्यान  भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े  को गाले !

15 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 21 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आदरणीया अनीता जी , सादर वन्दे !
    सूर्य उगा है नीले नभ मेंखिडकी खोल उजाला भर ले,दीप जल रहा तेरे भीतरमन को जरा पतंगा कर ले !सुन्दर भाव एवं रचना के लिए अभिनन्दन !

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-11-2022) को   "सभ्यता मेरे वतन की, आज चकनाचूर है"    (चर्चा अंक-4619) पर भी होगी।--
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  4. सुंदर! आशा का दीप जलाती रचना।
    सकारात्मक सृजन।

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  5. मन की धारा सूख गयी है
    कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
    राधा बन के उसे मोड़ ले
    खिल जायेंगे उद्यान भी !

    अद्भुत

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