अब तो इक ही धुन बजती है
अब जब तुम हो साथ हमारे
खोज रहे तब भला किसे हम,
श्वासों में हो, प्राणों में तुम
ढूँढे भला किसे नादां मन !
वाणी मुखर नहीं अब रहती
सिमट शब्द ज्यों भीतर सोए,
निशदिन उस का साथ मिला है
जिसे पुकारा करते थे वे !
यूँही समय बिताने ख़ातिर
आँख मिचौली खेल रहे थे,
ढूँढने का बहाना करते
तुम तो सारा वक्त यहीं थे !
कैसे कहें तुम्हारी बातें
बढ़ा गयी थीं दिल की धड़कन,
जब आँखों में फूल खिले थे
कैसे दें उस पल का विवरण!
कोई बोध नहीं पाया है
किया न कोई कर्म अनूठा,
कैसे साधें भक्ति भला जब
पृथक नहीं तुमको जाना है !
दुःख बिसराया सुख भी छूटा
अब तो इक ही धुन बजती है,
तुम हो, जग है, नयन देखते
पल-पल यह धरती सजती है !
एक लगन भीतर जागी थी
जिसने अब अधिकार किया है,
उसे छुड़ाया जो पकड़ा था
केवल अजर दुलार दिया है !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-11-2022) को "भारतमाता की जय बोलो" (चर्चा अंक 4609) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत आभार शास्त्री जी!
हटाएंसार्थक रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार ओंकार जी !
हटाएंकैसे साधें भक्ति भला जब
जवाब देंहटाएंपृथक नहीं तुमको जाना है !
सुन्दर अभिव्यक्ति...बहुत सुन्दर!
स्वागत व आभार हृदयेश जी!
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