मस्ती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मस्ती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, नवंबर 20

एक पुकार मिलन की जागे


एक पुकार मिलन की जागे

तू ही मार्ग, मुसाफिर भी तू
तू ही पथ के कंटक बनता,
तू ही लक्ष्य यात्रा का है
फिर क्यों खुद का रोके रस्ता !

मस्ती की नदिया बन जा मिल
तू आनंद प्रेम का सागर,
कैसे सुख की आस लगाये
तकता दिल की खाली गागर !

सूर्य उगा है नीले नभ में
खिडकी खोल उजाला भर ले,
दीप जल रहा तेरे भीतर
मन को जरा पतंगा कर ले !

मन की धारा सूख गयी है
कितने मरुथल, बीहड़ वन भी,
राधा बन के उसे मोड़ ले
खिल जायेंगे उद्यान  भी !

एक पुकार मिलन की जागे
खुद से मिलकर जग को पाले,
सहज गूंजता कण कण में जो
उस पावन मुखड़े  को गाले !

शुक्रवार, सितंबर 20

जैसे एक पवन का झोंका



जैसे एक पवन का झोंका


तितली, बादल, फूल, आसमां
उड़ते, बनते, खिलते यकसां,
देख-देख मुस्काए कोई
दिल में रहता शावक जैसा !

पुलक भरा है जोश भरा भी
ढहा दिए अवरोध सभी ही,
खिले कमल सा रहे प्रफ्फुलित
तज दी उर की आह कभी की !

जैसे एक पवन का झोंका
या कोई बादल का टुकड़ा,
तिरता नभ में हौले हौले
तृण भर भी आधार न पकड़ा !

मस्ती की गागर हो जैसे
हरियाली सा पसरे ऐसे, 
इक सुवास मदमस्त करे जो
मन बौराए भला न कैसे !

खिलना ही होगा हमको भी
राह देखता भीतर कोई,
मिलना होगा उससे जाकर
अंतर जिसकी याद समोई !

गुरुवार, अगस्त 1

उमग-उमग फैले सुवास इक


उमग-उमग फैले सुवास इक


भीतर ही तो तुम रहते हो
खुद से दूरी क्यों सहते हो,
जल में रहकर क्यों प्यासे हो
खुद ही खुद को क्यों फाँसे हो !

भीतर एक हँसी प्यारी है
सुनी खनक न किसी ने जिसकी,
भीतर फैला खुला आकाश
जगमग जलती ज्योति अनोखी  !

फूट-फूट कर बहे उजाला
छलक-छलक जाये ज्यों प्याला,
उमग-उमग फैले सुवास इक
दहक-दहक ज्यों जल अंगारा !

मस्ती का मतवाला सोता
झर-झर झरता निर्मल निर्झर,
एक अनोखी सी दुनिया है
ईंट-ईंट बनी जिसकी प्यार !

ऐसे उसकी याद झलकती
तारों भरा नीला आकाश,
बिन बदली बरसे ज्यों सावन
बिन दिनकर हो पावन प्रकाश !


बुधवार, जुलाई 31

चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा


मानस की घाटी में श्रद्धा का बीज गिरा
प्रज्ञा की डालियों पर शांति का पुष्प उगा,
मन अंतर सुवास से जीवन बहार महकी  
रिस-रिस कर प्रेम बहा अधरों से हास पगा !

कण-कण में आस जगा नैनों में जोत जली
हुलसा तन का पोर-पोर अनहद नाद बजा,
मधुरिम इक लय बिखरी जीवन संगीत बहा
कदमों में थिरकन भर अंतर में नृत्य जगा !

मुस्काई हर धड़कन लहराया जब वसंत
अपने ही आंगन में प्रियतम का द्वार खुला,
लहरों सी बन पुलकन उसकी ही बात कहे
बिन बोले सब कह दे अद्भुत आलाप उठा !

हँसता है हर पल वह सूरज की किरणों में
चंदा की आभा में कैसा यह हास जगा,
पल-पल संग वही संवारे सुंदर भाग जगा
देखो यह मस्ती का भीतर है फाग सगा !

युग-युग से प्यासी थी धरती का भाग खुला
सरसी बगिया मन की जीवन में तोष जगा,
वह है वही अपना रह-रह यह कोई कहे
सोया था जो कब से अंतर वह आज जगा !


शुक्रवार, सितंबर 22

अब नया-नया सा हर पल है


अब नया-नया सा हर पल है


अब तू भी याद नहीं आता
अब मस्ती को ही ओढ़ा है,
अब सहज उड़ान भरेगा मन
जब से हमने भय छोड़ा है !

वह भीति बनी थी चाहों से
कुछ दर्दों से, कुछ आहों से,
अब नया-नया सा हर पल है
अब रस्तों को ही मोड़ा है !

हर क्षण मरना ही जीवन है
गिन ली दिल की हर धड़कन है,
पल में ही पाया है अनंत
अब हर बंधन को तोड़ा है !

अब कदमों में नव जोश भरा
अब स्वप्नों में भी होश भरा,
अंतर से अलस, प्रमाद झरा
अब मंजिल को मुख मोड़ा है !


गुरुवार, जुलाई 6

बन जाता वह खुद ही मस्ती


बन जाता वह खुद ही मस्ती 

मस्ती की है प्यास सभी को
हस्ती की तलाश सभी को

मस्ती जो बिछड़े न मिलकर
हस्ती जो बोले बढ़चढ़ कर

दोनों का पर जोड़ नहीं है
इस सवाल का तोड़ नहीं है

हस्ती मिटे तो मस्ती मिलती
यह सूने अंतर में खिलती

हस्ती तो है एक उसी की
मस्ती जिसके नाम में बसती

मिटा दी जिसने खुद की हस्ती

बन जाता वह खुद ही मस्ती 

मंगलवार, जनवरी 7

यह तो था अपना ही घर


यह तो था अपना ही घर

पलक बिछाए वह बैठा है
दोनों बाहें भी फैलाये,
एक कदम उस ओर बढ़ें तो  
बड़े वेग से वह भी आये !

प्रियतम का घर दूर नहीं था
राह भटक कर हमीं अभागे,
हाथ थाम कर लाया वह ही
जिस पल थे प्रमाद से जागे !

जाना पहचाना आलम था
यह तो था अपना ही घर,
धूल बहुत फांकी दुनिया की
कभी नजर न डाली भीतर !

एक उजाला मद्धिम मद्धिम
 राग मधुर कोई बजता था,
शांति अगर सी फ़ैल रही थी
प्रेम दीप बन के जलता था !

नहीं छलावा नहीं झूठ का
नहीं लोभ का नाम वहाँ था,
नहीं अभाव न मांग थी कोई
मस्ती का इक जाम वहाँ था ! 

सोमवार, अप्रैल 22

जैसे कोई गीत सुरीला


जैसे कोई गीत सुरीला


शशि, दिनकर नक्षत्र गगन के, धरा, वृक्ष, झोंके पवन के
बादल, बरखा, बूंद, फुहारें, पंछी, पुष्प, भ्रमर गुंजारें

लाखों सीप अनखिले रहते, किसी एक में उगता मोती
लाखों जीवन आते जाते, किसी एक में रब की ज्योति

उस ज्योति को आज निहारें, परम सखा सा जो अनंत है
जीने की जो कला सिखाता, यश बिखराता दिग दिगन्त है

जैसे कोई गीत सुरीला, मस्ती का है जाम नशीला
तेज सूर्य का भरे ह्रदय में, शिव का ज्यों निवास बर्फीला

कोमल जैसे माँ का दिल, दृढ जैसे पत्थर की सिल
सागर सा विस्तीर्ण है जो, नौका वही, वही साहिल

नृत्य समाया अंग-अंग में, चिन्मयता झलके उमंग में
दृष्टि बेध जाती अंतर मन, जाने रहता किस तरंग में

लगे सदा वह मीत पुराना, जन्मों का जाना-पहचाना
खो जाता मन सम्मुख आके, चाहे कौन किसे फिर पाना

खो जाते हैं प्रश्न जहाँ पर, चलो चलें उस गुरुद्वार पर
चलती फिरती चिंगारी बन, मिट जाएँ उसकी पुकार पर

जैसे शीतल सी अमराई, भीतर जिसने प्यास जगाई
एक तलाश यात्रा भी वह, मंजिल जिसकी है सुखदाई

नन्हे बालक सा वह खेले, पल में सारी पीड़ा लेले
अमृत छलके मृदु बोलों से, हर पल उर से प्रीत उड़ेंले

वह है इंद्रधनुष सा मोहक, वंशी की तान सम्मोहक
है सुंदर ज्यों ओस सुबह की, अग्नि सा उर उसका पावक

मुस्काए ज्यों खिला कमल हो, लहराए ज्यों बहा अनिल हो
चले नहीं ज्यों उड़े गगन में, हल्का-हल्का शुभ्र अनल हो

मधुमय जीवन की सुवास है, अनछुई अंतर की प्यास है
पोर-पोर में भरी पुलक वह, नयनों का मोहक उजास है

प्रिय जैसे मोहन हो अपना, मधुर-मधुर प्रातः का सपना
स्मृति मात्र से उर भीगे है, साधे कौन नाम का जपना

धन्य हुई वसुंधरा तुमसे, धन्य-धन्य है भारत भूमि
हे पुरुषोत्तम! हे अविनाशी! प्रज्वलित तुमसे ज्ञान की उर्मि

गुरुवार, जनवरी 31

अबूझ है हर शै यहाँ



 अबूझ है हर शै यहाँ

नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता
हुआ जा सकता है
खोया जा सकता है
डूबा जा सकता है
नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता
फूल के सौंदर्य के बारे में
पीया जा सकता है
मौन रहकर
नहीं खोले जा सकते जीवन के रहस्य
जीवन जिया जा सकता है
नृत्य कहाँ से आता है
कौन जानता है ?
थिरका जा सकता है
यूँ ही किसी धुन, ताल पर
कहाँ से आती है मस्ती
कबीर की
वहाँ ले जाया नहीं
खुद जाया जा सकता है
डोला जा सकता है
उस नाद पर
जो सुनाया नहीं जा सकता
सुना जा सकता है
प्रकाश की नदी में डूबते उतराते भी
बाहर अँधेरा रखा जा सकता है
नहीं ही जो कहा जा सकता
उसके लिए शब्दों को
विश्राम दिया जा सकता है !

रविवार, जुलाई 8

ओह ! फिर बिजली चली गयी


ओह ! फिर बिजली चली गयी

गूंज रही मधु सम इक कूक
भोर सुहानी, तपती धूप,
जाने किस मस्ती में ड़ूबे
नन्हें शावक, सुंदर रूप !

बिजली-बिजली करता मानव
वे तपती दोपहर में गाते,
सर्दी, गर्मी, हो बहार या
सारे मौसम इनको भाते !

अभी जुड़े हैं शायद उससे
हम बिछड़े हैं जाने कब से,
भीतर कोई स्रोत खो गया
कितना दुर्बल मनुज हो गया !

किस-किस का यह हुआ गुलाम
रहा नहीं मेहनत के काम,
कैसे उसे नचाता है मन
पल-पल करता उसे सलाम !

सादा जीवन, हल्का सा मन
देह भी फूल सी महक उठेगी,
भीतर छिपी आत्मज्योति जो
कण-कण से फिर स्वयं झलकेगी !

सोमवार, जून 18

एक रागिनी है मस्ती की


एक रागिनी है मस्ती की

एक ही धुन बजती धड़कन में
एक ही राग बसा कण-कण में,
एक ही मंजिल, एक ही रस्ता
एक ही प्यास शेष जीवन में !

एक ही धुन वह निज हस्ती की
एक रागिनी है मस्ती की,
एक पुकार सुनाई देती
दूर पर्वतों की बस्ती की !

मस्त हुआ जाये ज्यों नदिया
पंछी जैसे उड़ते गाते,
उड़ते मेघा सँग हवा के
बेसुध छौने दौड़ लगाते !

खुले हों जैसे नीलगगन है
उड़ती जैसे मुक्त पवन है,
क्यों दीवारों में कैद रहे मन
परम प्रीत की लगी लगन है !

एक अजब सा खेल चल रहा
लुकाछिपी है खुद की खुद से,
स्वयं ही कहता ढूंढो मुझको
स्वयं ही बंध कर दूर है खुद से ! 

सोमवार, मई 21

अब सहज उड़ान भरेगा मन



अब सहज उड़ान भरेगा मन


अब वह भी याद नहीं आता
अब मस्ती को ही ओढ़ा है,
अब सहज उड़ान भरेगा मन
जब से इसने घर छोड़ा है !

वह घर जो बना था चाहों से
कुछ दर्दों से, कुछ आहों से,
अब नया-नया सा हर पल है
अब रस्तों को ही मोड़ा है !

हर क्षण मरना ही जीवन है
गिन ली दिल की हर धड़कन है,
पल में ही पाया है अनंत
अब हर बंधन को तोड़ा है !

अब कदमों में नव जोश भरा
अब स्वप्नों में भी होश भरा,
अंतर से अलस, प्रमाद झरा
अब मंजिल को मुख मोड़ा है !