उस भली सी इक ललक को
जिस घड़ी आ जाये होश
जिंदगी से रूबरू हों,
उसी पल में ठहर कर फिर
झांक लें खुद के नयन में !
बह रही जो खिलखिलाती
गुनगुनाती धार नदिया,
चंद बूँदें ही उड़ेलें
उस जहाँ की झलक पालें !
क्या यहाँ करना क्या पाना
यह सिखावन चल रही है,
बस जरा हम जाग देखें
और अपने कान धर लें !
नहीं माँगे सदा देती
नेमतें अपनी लुटाती,
चेत कर इतना तो हो कि
फ़टे दामन ही सिला लें !
पूर्णता की चाह जागे
लगन से हर राह मिलती,
ला दिया जिसने सवेरा
रात जिससे रोज खिलती !
उस भली सी इक ललक को
धूप, पानी, खाद दे दें,
जो कभी बुझती नहीं है
वह नशीली आग भर लें !
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 24 नवंबर 2022 को 'बचपन बीता इस गुलशन में' (चर्चा अंक 4620) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी!
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 24 नवंबर 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
बहुत बहुत आभार!
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंयह ललक सदा बनी रहे- उकसाती रहे कुछ करने के लिए.
जवाब देंहटाएंसही कह रही हैं आप, यही जीवन की ऊर्जा को दिशा देती है
हटाएंयह ललक सदा बनी रहे बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार अभिलाषा जी!
हटाएंजिस घड़ी आ जाये होश
जवाब देंहटाएंजिंदगी से रूबरू हों,
उसी पल में ठहर कर फिर
झांक लें खुद के नयन में !
सुंदर , प्रेरक रचना ।
बहुत दिनों बाद आपको यहाँ देखकर ख़ुशी हो रही है, स्वागत व आभार संगीता जी!
हटाएं