अंश
सुबह-सुबह जगाया उसने
कोमलता से,
छूकर मस्तक को,
जैसे माँ जगाती है
अनंत प्रेम भरे अपने भीतर
याद दिलाने, तुम कौन हो ?
उसी के एक अंश
उसके प्रिय और शक्ति से भरे
बन सकते हो, जो चाहो
रास्ता खुला है,
जिस पर चला जा सकता है
ऊपर से बहती शांति की धारा को
धारण करना है
जिसकी किरणें छू रही हैं
मन का पोर-पोर
अंतर के मंदिर में
अनसुने घंटनाद होते हैं
जलती है ज्योति
बिन बाती बिन तेल
हो तुम चेतन
इस तरह, कि अंश हो
उसी अनंत का !
जलती है ज्योति
जवाब देंहटाएंबिन बाती बिन तेल
हो तुम चेतन
इस तरह, कि अंश हो
उसी अनंत का ! - Wah!!
स्वागत व आभार!
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंये सृष्टि ही अंश है उसी अनंत का जिसका कोई अंत नहीं।
जवाब देंहटाएंअति सुंदर भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
सस्नेह
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार २९ जुलाई २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत बहुत आभार श्वेता जी!
हटाएंअत्यंत हृदयस्पर्शी
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
हटाएंअति सुन्दर भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति । सादर नमस्कार अनीता जी !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार मीना जी!
हटाएंबहुत सुंदर अप्रतिम !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार!
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