किताब ज़िंदगी की
मुस्कुराओ कि अभी ज़िंदा हो
आख़िर किस बात पर शर्मिंदा हो
हाथ थामा है जब उसने
आगे बढ़कर,
परवाज़ लगाओ
मानो कोई परिंदा हो
रूह तो क़ैद नहीं, उसकी सुनो
अमन औ” चैन के नये ख़्वाब बुनो !
ज़िंदगी किताब कोरी सी
हर रात हो जाती,
हर सुबह नया इक नाम चुनो !
ओढ़ रखा है क्यों मायूसी का
लबादा सिर पर
जब डोर बांधी है जन्नतों से दिल की
कोई सागर पास ही उफनता है
नाच सकते हो जिसकी लहरों पर
चाँद छूने का बस इक इरादा ही काफ़ी
दिल की गहराइयों से जो निकला हो
श्वासें न खर्च हों समेटते उदासियों को
जबकि हाथ कोई प्यार से सिर पर रखे !
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 18 मई 2023 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
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बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार 18 मई 2023 को 'तितलियों ने गीत गाये' (चर्चा अंक 4664) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
बहुत बहुत आभार रवींद्र जी !
हटाएंमुस्कुराओ कि अभी जिंदा हो ....वाह!बहुत खूब अनीता जी ...
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार शुभा जी!
हटाएंसुन्दर सृजन !
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
हटाएंबहुत सुंदर सकारात्मक स्फूर्ति देती अभिनव रचना।
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार कुसुम जी!
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