गुरुवार, मई 25

है कोई अनुबंध अनकहा

है कोई अनुबंध अनकहा

अंक लिए संपूर्ण  सृष्टि को 
वह असीम यूँ डोल रहा है,
ह्रदय गुहा का वासी भी है 
निज रहस्य को खोल रहा है ! 

अंतरैक्य जब भी घटता है 
सिंधु बिंदु में झर-झर जाता,
अम्बर सा जो ढाँपे जग को 
लघु उर में वह अजर समाता !

अक्षत, अगरु, अग्नि स्फुलिंग सी  
ज्योति अखंड बिखेरे भीतर,
अनंत, अचल , अमरत्व , अदम्य 
भरे आस्था, प्रीत निरंतर ! 

अनुकंपित कण-कण को करता 
है कोई अनुबंध अनकहा,
रहे अगोचर कहने भर को 
हस्ताक्षर हर कहीं दिख रहा ! 

स्वयं अनुरक्त दृष्टि डालता 
सहस भुजाओं वाला कहते,
अनुरागी अंतर को मथता 
प्रेमिल अश्रु यूँ नहीं बहते ! 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (28-05-2023) को   "कविता का आधार" (चर्चा अंक-4666)  पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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  2. अनुकंपित कण-कण को करता
    है कोई अनुबंध अनकहा,
    रहे अगोचर कहने भर को
    हस्ताक्षर हर कहीं दिख रहा !
    राममय हो मन तो कण कण में राम
    हस्ताक्षर वाकई हर कहीं छोड़े हैं उसने बस पहचानने की देर है।
    लाजवाब सृजन ।

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  3. अंतरैक्य जब भी घटता है
    सिंधु बिंदु में झर-झर जाता,
    अम्बर सा जो ढाँपे जग को
    लघु उर में वह अजर समाता !
    .. मन में उतरती रचना सुंदर रचना।

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