जीवन जो गतिमान निरंतर
रोकें नहीं ऊर्जा भीतर
पल-पल बहती रहे जगत में,
त्वरा झलकती हो कृत्यों से
पाँव रुकें नहीं थक मार्ग में !
नित रिक्त हों हरसिंगार सम
पुनः-पुनः मंगल ज्योति झरे,
रुकी ऊर्जा बन पाहन सी
सर्जन नहीं विनाश ही करे !
धारा थम कर बनी ताल इक
बहती रहती जुड़ी स्रोत से,
जीवन जो गतिमान निरंतर
दूर कहाँ है वह मंजिल से!
कृत्यों की ऊर्जा बहायें
भीतर खले न कोई अभाव,
भरता ही जाता है आँचल
जिस पल माँगा मुक्ति का भाव !
लुटा रहा है सारा अम्बर
हम भी दोनों हाथ उलीचें,
क्षण-क्षण में जी स्वर्ग बना लें
बँधी हुई मुठ्ठी न भींचें !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 09 जुलाई 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार दिग्विजय जी!
हटाएंसकारात्मक भावों को सहेजे प्रेरक प्रस्तुति प्रिय अनीता जी।प्रकृति हमें पग- पग पर सदा ही उदार और ऊर्जावान रहने का संदेश देती है।🙏
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है, प्रकृति हमें हर पल आगे बढ़ाने का इशारा करती है। स्वागत व आभार रेणु जी !
हटाएंबहुत खूबसूरत सृजन
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार भारती जी!
हटाएं