सोमवार, जुलाई 31

खुले न द्वार हृदय का जब तक

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 


जीवन चिर बसंत सा मिलता 

यदि  कोई बाधा मत डाले, 

सुरभित ब्रह्मकमल सा खिलता 

आत्ममुग्धता ग़र तज डाले !


दिग दिगंत में जो फैला है 

छोटा सा बन हुआ संकुचित, 

खुले न द्वार हृदय  का जब तक 

कैसे मिलन घटेगा समुचित !


 रूप धरा वामन, विराट है

छा जाता भू-स्वर्ग हर कहीं, 

मिट जाये जो पा लेता है 

 नहीं जानता उर राज यही !


जो पहले था, सदा  रहेगा 

उसका स्वाद जरा लग जाये, 

दिल दीवाना रहे ठगा सा 

बार-बार मिट रहे रिझाये !


4 टिप्‍पणियां:

  1. जो पहले था, सदा रहेगा

    उसका स्वाद जरा लग जाये,

    दिल दीवाना रहे ठगा सा

    बार-बार मिट रहे रिझाये !
    बहुत सुंदर।

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  2. कबीर ने भी कहा था - घूँघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे!

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    1. कबीर के साथ कितने ही संतों ने गाया है, जिसने पाया भीतर ही पाया है !स्वागत व आभार प्रतिभा जी !

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