बुधवार, दिसंबर 6

क्यों दिल की साँकल उढ़का ली


क्यों दिल की साँकल उढ़का ली


भरें न कल्पना की उड़ानें 

कैसे नये क्षितिज पायेंगे ? 

नियत सोच में सिमटे रहकर 

बस पुरातन दोहरायेंगे !


जहाँ अनंत कपाट खुले हों 

कैसे कोई घर में बैठे, 

महासमंदर ठाँठे मारे 

क्यों न मुसाफ़िर गहरे पैठे !


पलकों में सपने तिरतें हों 

अंतर भरे उमंग उल्लास, 

अधरों पर हों गीत मिलन के 

जागा रहे पल-पल विश्वास !


दूरी नहीं जरा भी उससे 

जिसका पथ ये कदम ढूँढते, 

अहर्निशम् दीपक जलता है 

नयन मुँदे हों या हों जगते !


कोकिल और पपीहा प्यासे 

अब भी लगन जगे अंतर में, 

चातक तकता नील गगन को 

अब भी मोर नाचते वन में !


जीवन दे उपहार अनोखे 

अपनी ही झोली क्यों ख़ाली, 

सब दे कर भी कभी न चुकता

क्यों दिल की साँकल उढ़का ली ! 


8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" गुरुवार 07 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  2. कल्पना की अप्रतिम उड़ान। अत्यंत सकारात्मक भाव!

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