क्यों दिल की साँकल उढ़का ली
भरें न कल्पना की उड़ानें
कैसे नये क्षितिज पायेंगे ?
नियत सोच में सिमटे रहकर
बस पुरातन दोहरायेंगे !
जहाँ अनंत कपाट खुले हों
कैसे कोई घर में बैठे,
महासमंदर ठाँठे मारे
क्यों न मुसाफ़िर गहरे पैठे !
पलकों में सपने तिरतें हों
अंतर भरे उमंग उल्लास,
अधरों पर हों गीत मिलन के
जागा रहे पल-पल विश्वास !
दूरी नहीं जरा भी उससे
जिसका पथ ये कदम ढूँढते,
अहर्निशम् दीपक जलता है
नयन मुँदे हों या हों जगते !
कोकिल और पपीहा प्यासे
अब भी लगन जगे अंतर में,
चातक तकता नील गगन को
अब भी मोर नाचते वन में !
जीवन दे उपहार अनोखे
अपनी ही झोली क्यों ख़ाली,
सब दे कर भी कभी न चुकता
क्यों दिल की साँकल उढ़का ली !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" गुरुवार 07 दिसम्बर 2023 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार यशोदा जी !
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार जोशी जी !
हटाएंकल्पना की अप्रतिम उड़ान। अत्यंत सकारात्मक भाव!
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार विश्वमोहन जी !
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंस्वागत व आभार !
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