निंदा -स्तुति
तारीफें झूठी होती हैं अक्सर
उन पर हम आँख मूंदकर भरोसा करते हैं
फटकार सही हो सकती है
पर कान नहीं धरते हैं
प्रशंसकों को मित्र की पदवी दे डालते
सिखावन देने वालों को यदि शत्रु नहीं
तो कदापि निज हितैषी नहीं मानते
तारीफ़ें झूठा आश्वासन देती हैं
मंजिलों का
आलोचना आगे ले जा सकती थी
नकार उसे पाँव की जंजीर बना लेते
कहीं बढ़ते नहीं
उस इक माया जाल में
कोल्हू के बैल की तरह
गोल-गोल घूम तुष्ट होते
संसार चक्र में फंसे
उन्हीं विषयों से राग बटोरते
जो चुक जाता क्षण में
आगे क्या है ज्ञात नहीं
पर जो भी है निंदा-स्तुति के पार है
वह सुख-दुःख के भी परे है
वहां तो स्वयं ही जाना होता है
कोई खबर नहीं आती
उस अनाम अगम की !