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शुक्रवार, नवंबर 20

प्रेम से कोई उर न खाली

 


प्रेम से कोई उर न खाली
 

एक बूंद ही प्रेम अमी की

जीवन को रसमय कर देती,

एक दृष्टि  आत्मीयता की

अंतस को सुख से भर देती !

 

प्रेम जीतता आया तबसे

जगती नजर नहीं आती थी,

एक तत्व ही था निजता में

किन्तु शून्यता ना भाती थी !

 

 स्वयं शिव से ही प्रकटी  शक्ति 

प्रीति बही थी दोनों ओर,

वह दिन और आज का दिन है

बाँधे कण-कण प्रेम की डोर !

 

हुए एक से दो थे जो तब

 एक पुन: वे  होना चाहते, 

दूरी नहीं सुहाती पल भर

प्रिय से कौन न मिलन मांगते !

 

खग, थलचर या कीट, पुष्प हों

प्रेम से कोई उर न खाली,

मानव के अंतर ने जाने

कितनी प्रेम सुधा पी डाली !

 

करूणा प्रेम स्नेह वात्सल्य

ढाई आखर सभी पढ़ रहे,  

अहंकार की क्या हस्ती फिर

प्रेमिल दरिया जहाँ बह रहे !   

शुक्रवार, अप्रैल 17

इक राह नई चुननी है

इक राह नई चुननी है 


इक राह नई चुननी है 
रक्षित दुर्ग बनाना है, 
इस अनजाने दुश्मन से
सबको ही बचाना है !

धीरज की बाँह पकड़कर 
सहना है हर अनुशासन ,
मन ना कोई विचलित हो
 शुभ संदेश सुनाना है !

थोड़े में गुजारा हो 
मिल बांट के हम खाएँ,
कोई भी अकेला हो 
उसे ढूंढ के लाना है !

मीलों की भले दूरी 
दिल से नहीं दूर रहें, 
करुणा जगे अंतर में 
यही फूल खिलाना है !

गुरुवार, अगस्त 23

पाया परस जब नेह का



पाया परस जब नेह का


तेरे बिना कुछ भी नहीं
तेरे सिवा कुछ भी नहीं,
तू ही खिला तू ही झरा
तू बन बहा नदिया कहीं !

तू लहर तू ही समुन्दर
हर बूंद में समाया भी,
सुर नाद बनकर गूँजता
गान तू अक्षर अजर भी !

है प्रीत करुणा भावना
सपना बना तू भोर में,
छू पलक तू ही जगाता
सुख सम भरा हर पोर में !

तुझसे हृदय की धड़कनें
मृत्यु है तेरी गोद में,
श्रद्धा, सबूरी, अर्चना,
नव चेतना हर शब्द में !

भीतर मिला हर स्वर्ग बन
जीवन का सहज मर्म तू,
खोयी कहीं दुःख की अगन
हर नीति औ’ हर धर्म तू !

कतरा-कतरा विदेह बन
डूबा सरल उर भाव में,
पाया परस जब नेह का
मन खो गया इस चाव में !

कण-कण पगा रस माधुरी
भीगा सा मन वसन हिले,
तेरी झलक जब थिर हुई
उर में हजार कमल खिले !

मद मस्त हो उर गा उठा
जीवन बिखरता हर घड़ी,
तू ही निखरता भोर में
तू ही सजा तारक लड़ी !

तू ही गगन में चन्द्रमा
तू ही धरा पर मन हुआ,
रविकर हुआ छू ले जहाँ
तू ही खिला बन कर ऋचा !


मंगलवार, मई 12

गुरूजी के जन्मदिन पर

गुरूजी के जन्मदिन पर

मुक्तिबोध कराते पल में
करुणा सागर ज्ञान का दरिया,
ऐसे थामे रखते पल-पल  
प्रेम लुटाते ज्यों सांवरिया !

स्वीकारें हर परिस्थिति को
किन्तु डिगें न अपने पथ से,
वर्तमान में रहकर प्रतिक्षण
वरतें स्वयं सम सारे जग से !

नित नूतन कई ढंग से
बोध कराते निज स्वरूप का,
भाव भंगिमा अनुपम उनकी
छलकाते जाम मस्ती का !

सेवा, सत्संग और साधना
स्वाध्याय का दें संदेश,
जीवन धन्य बनेगा कैसे
सिखलाते हैं देश-विदेश !

सद्गुरु का होना सूर्य सम
अंधकार अंतर का मिटता,
चाँद पूर्णिमा का अथवा हो
सौम्य भाव इक उर में जगता !

शुभता और सत्यता बाँटें
हर लेते हर पीड़ा मन की,
सहज समाधि में ले जाते
अद्भुत है क्रीड़ा गुरू जन की !

दिवस अवतरण का पावन है
बरसों पूर्व धरा पर आये,
शुद्ध बुद्ध चेतना लेकर
भारत भूमि पर मुस्काए !

शिशु काल से ही भक्ति का
बीज अंकुरित था अंतर में,
लाखों जन की पीड़ा हर लूँ
यह अंकित था कोमल उर में !

की तपस्या बरसों इस हित
सहज ध्यान में बैठे रहते,
जग को क्या अनमोल भेंट दूँ
इस धुन में ही खोये रहते !

स्वयं कुछ पाना शेष नहीं था
तृप्त हुआ था कण-कण प्रभु से,
चिन्मय रूप गुरू का दमके
पोर पोर पगा था रस से !

क्रिया की कुंजी बांटी सबको
राज दिया भीतर जाने का,
छुपा हुआ जो प्रेम हृदय में
मार्ग दिया उसको पाने का !

सद्गुरु को शत शत प्रणाम हैं
कृपा बरसती है नयनों से,
शब्द अल्प हैं क्या कह सकते
तृप्ति झरती है बयनों से !

लाख जन्म लेकर भी शायद
नहीं उऋण हो सकता साधक,
गुरू की एक दृष्टि ही जिसको
करती पावन जैसे पावक !

एक समन्दर है शांति का
एक बगीचा ज्यों पुष्पों का,
एक अनंत गगन सम विस्तृत
मौन एक पसरा मीलों का !

गुरु की गाथा कही न जाये
शब्दों में सामर्थ्य कहाँ है,
स्वर्गिक ज्योति ज्यों ज्योत्स्ना
बिखरी उसके चरण जहाँ हैं !

सिर पर हाथ धरे जिसके वह
जन्मों का फल पल में पाता,
एक वचन भी अपना ले जो
जीने का सम्बल पा जाता  !

महिमा उसकी है अपार
बिन पूछे ही उत्तर देता,
प्रश्न कहीं सब खो जाते
अन्तर्यामी सद्गुरु होता !

दूर रहें या निकट गुरू के
काल-देश से है अतीत वह,
क्षण भर में ही मिलन घट गया
गूंज रहा जो पुण्य गीत वह !

पावन हिम शिखरों सा लगता
शक्ति अरूप आनंद स्रोत है,
नाद गूंजता या कण-कण में
सदा प्रज्वलित अखंड ज्योत है !

वही शब्द है अर्थ भी वही
भाव जगाता दूजा कौन,
उसकी महिमा खुद ही जाने
वाणी हो जाती है मौन !

सरिता कल-कल ज्यों बहती है
उससे सहज झरे है प्रीत,
डाली से सुवास ज्यों फैले
उससे उगता है संगीत !

धरती सम वह धारे भीतर
माणिक-मोती सम भंडारे,
बहे अनिल सा कोने कोने
सारे जग को पल पल तारे !


बुधवार, दिसंबर 18

क्रिसमस उसकी याद दिलाता

क्रिसमस उसकी याद दिलाता



क्रिसमस उसकी याद दिलाता
जो भेड़ों का रखवाला था,
आँखें करुणा से नम रहतीं
मन जिसका मद मतवाला था !

जो गुजर गया जिस घड़ी जहाँ
फूलों सी महकीं वे राहें,
दीनों, दुखियों की आहों को
झट भर लेती उसकी बाहें !

सुन यीशू के उपदेश अनोखे
 भीड़ एक पीछे चलती थी,
भर अधिकार से कहते थे वह
 चकित हुई सी वह गुनती थी !

नहीं रेत पर महल बनाओ  
जो पल भर में ही ढह जाते,
चट्टानों पर नींव पड़ी तो  
गिरा नहीं सकतीं बरसातें !

यहाँ मांगने से मिलता है
 खोला जाता है यह द्वार,
ढूंढेगा जो, पायेगा ही
प्रभु लुटाने को तैयार !

कितने रोगी स्वस्थ हुए थे
अनगिन को दी उसने आशा,
तूफानों को शान्त किया था
अद्भुत थी जीसस की भाषा !

प्रभु के प्यारे पुत्र कहाते
जन-जन की पीड़ा, दुःख हरते,
एक बादशाह की मानिंद वे
संग शिष्यों के डोला करते !

जो कहते थे, पीछे आओ
सीखो तुम भी मानव होना,
हूँ पुत्र प्रिय परमेश्वर का 
मैं जानता मार्ग स्वर्ग का !

संकरा है वह द्वार प्रभु का
 उससे ही होकर जाना है,
यीशू ने जो बात कही थी
 आज उसे ही दोहराना है ! 

सोमवार, फ़रवरी 20

शिवरात्रि के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें


शिवरात्रि पर

एक झलक जो तेरी पाए
तेरा दीवाना हो जाये,
गा-गा कर फिर महिमा तेरी
मस्त हुआ सा दिल बहलाए !

तू कैसी सरगोशी करता
जो जैसा, तुझे वैसा देखे,
पल–पल चमत्कार दिखलाता
बुद्धि खा जाती है धोखे !

कौन जान सकता है तुझको
अगम, अगोचर, अकथ, अनंत,
एक प्रखर आलोक अनोखा
जिसका कभी न होता अंत !

नभ के सूरज उगते मिटते
भीतर तेरा सूर्य अजर है,
तू अकम्प सदा है प्रज्वलित
परम उजाला वही अमर है !

तू करुणा का सिंधु अपरिमित
नहीं पुकार अनसुनी करता,
जो तुझको आधार बनाता
अंतर वह निज प्रेम से भरता !