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शुक्रवार, अगस्त 22

नई मंज़िल का पता पा

नई मंज़िल का पता पा 


दूर हों अज्ञान से हम 

कामनाएँ मिट रहें, 

स्वयं में ही तृप्त हो मन  

 कोई अभाव न खले !


किसी क्षण में वह परम मिल 

उसी पथ पर ले चले, 

दूर होगी हर इक कलल 

संग उसके मन हँसे !


यज्ञ की ज्वाला उठेगी

मिलन का उत्सव मने, 

नई मंज़िल का पता पा  

ज्योति सा मन खिल उठे !



मंगलवार, दिसंबर 7

संध्या बेला

संध्या  बेला  

तमस की काली रात्रि 
अथवा रजस का उजला दिन 

दोनों रोज ही मिलते हैं 

अंधकार और प्रकाश के 

इस खेल में हम नित्य ही स्वयं को छलते हैं 

चूक जाती है दोनों के 

मिलन की सन्ध्या बेलायें 

जब प्रकाश और तम एक-दूसरे में घुलते हैं 

उस सलेटी आभा में 

सत छिपा रहता है 

पर कभी अँधेरा कभी उजाला 

उसे आवृत किये रहता है 

वही धुधंला सा उजास ही 

उस परम की झलक दिखाता है 

जब मन की झील स्वच्छ हो और थिर भी 

तभी उसमें पूर्ण चंद झलक जाता है 

न प्रमाद न क्रिया जब मन को लुभाती है

तब ही उसकी झलक मिल पाती है  !


सोमवार, फ़रवरी 20

शिवरात्रि के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें


शिवरात्रि पर

एक झलक जो तेरी पाए
तेरा दीवाना हो जाये,
गा-गा कर फिर महिमा तेरी
मस्त हुआ सा दिल बहलाए !

तू कैसी सरगोशी करता
जो जैसा, तुझे वैसा देखे,
पल–पल चमत्कार दिखलाता
बुद्धि खा जाती है धोखे !

कौन जान सकता है तुझको
अगम, अगोचर, अकथ, अनंत,
एक प्रखर आलोक अनोखा
जिसका कभी न होता अंत !

नभ के सूरज उगते मिटते
भीतर तेरा सूर्य अजर है,
तू अकम्प सदा है प्रज्वलित
परम उजाला वही अमर है !

तू करुणा का सिंधु अपरिमित
नहीं पुकार अनसुनी करता,
जो तुझको आधार बनाता
अंतर वह निज प्रेम से भरता !


   

मंगलवार, जनवरी 24

जाने कौन सिवाय तेरे


जाने कौन सिवाय तेरे

तेरी धरा नीर भी तेरा
तेरी अगन पवन भी तेरा,
तेरे ही आकाश के नीचे
सकल रूप डाले हैं डेरा !

देह भी तेरी मन भी तेरा
श्वासें तेरी चिंतन तेरा,
तेरी ही प्रज्ञा के कारण
कैसा जगमग हुआ सवेरा !

तू ही चला रहा सृष्टि को
जाने कौन सिवाय तेरे,
एक बीज में छिपा सकल वन
एक शब्द से सबको टेरे !

यही एक राज  पाना है
होना क्या फिर खो जाना है,
तू ही है अब तू ही तो था
तुझको ही बस रह जाना है !

एक झलक जो तेरी पाए
तेरा दीवाना हो जाये,
गा गा कर फिर तेरी गाथा
मस्त हुआ सा दिल बहलाए !  





सोमवार, जनवरी 2

ऐसे ही वह हमें सहेजे



ऐसे ही वह हमें सहेजे

पीछे-पीछे आता है वह
परम सनेहे हर पल भेजे,
मोती जैसे जड़ा स्वर्ण में
ऐसे ही वह हमें सहेजे !

घेरे हुए है चहूँ ओर से
माँ के हाथों के घेरे सा,
गुंजन मधुर सुनाता हर पल
मंडराए ज्यों मुग्ध भ्रमर सा !

गहन शांति व मौन अनूठा
भर जाता भीतर जब आये,
जन्मों की साध हो पूरी
ऐसा कुछ संदेश दे जाये !

ज्योति का आवरण ओढ़ाता
एक तपिश अनोखी प्रीत,
सब कुछ जैसे बदल गया हो
बदला हो प्रांगण व भीत !

भान समय का भी खो जाता
नहीं कोई वह रहे अकेला,
अपनी मस्ती में बस खोया
एक हुए नीरव या मेला !   

शनिवार, सितंबर 10

जिसमें किसलय परम खिलेगा


जिसमें किसलय परम खिलेगा


मन क्या है ? बस एक सवाल
जिसका उत्तर कोई नहीं है,
मन क्या है ? बस एक ख्याल
होना जिसका कहीं नहीं है !

मन बंटवाता, मन उलझाता
दुःख के काँटों में बिंधवाता,
कभी हवाई किले बनाकर
मिथ्या स्वप्नों में भरमाता !

बीत गया जो भूत हो गया
मन उससे ही चिपटा रहता,
जो भावी है अभी न आया
दिवास्वप्न में खोया रहता !

क्यों न मन से नजर मिलाएं
उसके आर-पार देखें हम,
प्रीत की जिस झालर को ढके है
उसको तार-तार देखें हम !

मन खाली हो जाये अपना
तब इक जीवन नया मिलेगा,
इक उपवन सा पनपे भीतर  
जिसमें किसलय परम खिलेगा !