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सोमवार, अप्रैल 22

एकांत

एकांत  

उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक

धरा के इस छोर से उस छोर तक

कोई दस्तक सुनाई नहीं देती

जब तक सुनने की कला न आये 

वह कर्ण न मिलें  

 सुन लेते हैं जो मौन की भाषा 

 जहां छायी है 

अटूट निस्तब्धता और सन्नाटा

वहीं गूंजता है 

अम्बर के लाखों नक्षत्रों का मौन हास्य 

और चन्द्रमा का स्पंदन  

मिट जाती हैं दूरियाँ

हर अलगाव हर अकेलापन

जब मिलता है उसका संदेशा 

एक अनमोल उपहार  सा

और भरा जाता है एकांत 

मृदुल प्यार सा  !


शुक्रवार, जुलाई 30

एकांत और अकेलापन

एकांत और अकेलापन 

अकेलापन खलता है 

एकांत में अंतरदीप जलता है 

अकेलेपन के शिकार होते हैं मानव 

एकांत कृपा की तरह बरसता है !

जब भीड़ में भी अकेलापन सताए 

तब जानना वह एकांत की आहट है 

जब दुनिया का शोरगुल व्याकुल करे 

तब मानो एकांत घटने की घबराहट है !

अकेलापन दूजे की चाहत से उपजता है 

एकांत हर चाहत को गिरा देने का नाम है 

जब भीतर सन्नाटा हो इतना 

कि दिल की धड़कन सुनायी दे 

जब श्वासों में अनाम गूंजने लगे 

तब उस एकांत में एक मिलन घटता है 

मिटा देता है अकेलेपन का हर दंश जो सदा के लिए 

उसी मिलन का आकांक्षी है हर मन 

जो अकेलेपन में वह खोजता है 

यही अकेलापन बदल जाएगा एकांत में एक दिन 

और अपनेआप से मुलाक़ात होगी 

फिर तो दिन-रात कोई साए की तरह साथ रहेगा 

जब चाहा उससे बात होगी ! 


सोमवार, नवंबर 2

एक अगोचर वह अनदेखा

एक अगोचर वह अनदेखा

भरा-भरा घर किन्तु हृदय में

इक खालीपन सदा सताता,

सुना है कि कोई बिरला ही

भरे रिक्तता को मुस्काता !

 

अमल अनोखा एकांत यहाँ

जगत यह जिसको भर न पाए,

अजर, अगोचर वह अनदेखा

गीत न जब तक खुद गुंजाये ! 


जगत दे रहा जो दे सकता

अल्प मान और सम्मान भी,

अपनों की छाया भी मिलती

प्रश्नों का कुछ समाधान भी !

 

फिर भी कोई कमी अजानी

दिवस-रात साले जो मन को,

किसकी तृषा करे उर घायल 

किसका सपन पालती है वो !

 

उसके सिवा न कोई जाने

जीवन जिसने दिया मनोहर, 

अंतर को विश्राम मिलेगा

मिलन पूर्णता से हो जिस क्षण ! 

मंगलवार, अक्टूबर 13

उस लोक में

उस लोक में 


जहां आलोक है अहर्निश 

किंतु समय ही नहीं है जहाँ

रात-दिन घटें कैसे ? 

पर शब्दों की सीमा है 

जागरण के उस लोक में 

जहाँ नितांत एकांत है 

और निपट नीरव 

पर जहाँ जाकर ही मिलता है 

मानव को निजता का गौरव 

उस निजता का जिसमें कोई पराया है ही नहीं 

जहाँ हर पेड़-पौधे, हर प्राणी से 

जुड़ जाते हैं अदृश्य तार 

जहां वाणी के बिना ही संदेश 

लिए-दिए जाते हैं 

चेतना का वह प्रकाश ही 

बरस रहा है ज्योत्स्ना में 

जिसे हंस की तरह चुगना होगा 

उस आभा से ही भीतर

मन का आसन बुनना होगा 

जिससे बुनते हैं कबीर झीनी चादर 

जो ज्यों की त्यों रह जाती है 

उस जागरण की याद 

हमें क्यों नहीं सताती है ! 





शुक्रवार, मई 11

शब्दातीत....


शब्दातीत....

नीरव सन्नाटा है जहाँ
एक अस्पृश्य मौन
अंतहीन चुप्पी !

निष्तरंगता...वहाँ कम्पन भी नहीं
सूक्ष्म कम्पन जहाँ
झील में फेंकी चट्टान सा प्रतीत होता है
जहाँ डूब जाती हैं
सागर की अतल गहराइयाँ भी
जहाँ खो सकते हैं
हजारों एवरेस्टों की ऊंचाइयाँ भी !

उसी निपट एकांत में
रचा गया था सृष्टि का खेल
अचल, अटूट, अजर उस सत्ता को
कोई नाम भी क्या दें...

सारे शब्दों का जहाँ होता है अंत
उसे शब्दातीत कहना भी तो व्यर्थ है
उस अनंत मौन में ऋषि के भीतर
शिव की तीसरी आँख खुलती है...!