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बुधवार, मई 15
शनिवार, दिसंबर 18
सन्नाटे का पुष्प अनोखा
सन्नाटे का पुष्प अनोखा
खो जाते हैं प्रश्न सभी का
इक ही उत्तर जब मिलता है,
सन्नाटे का पुष्प अनोखा
अंतर्मन में तब खिलता है !
उर नि:शब्द, नीरवता छायी
बस होना पर्याप्त हुआ है,
उसी मौन में भीतर घटता
अद्भुत इक संवाद हुआ है !
क्या कहना, क्या सुनना है अब
भेद खुले हैं सारे उसके,
जान जान जाना ना जाए
गढ़ते सब क़िस्से हैं जिसके !
चुप रहकर या सब कुछ कहकर
नहीं ज्ञान हो सकता उसका,
वही ज्ञान है वह है ज्ञाता
बस इतना कोई कह सकता !
सोमवार, जनवरी 20
सन्नाटे को गुनना होगा
सन्नाटे को गुनना होगा
शब्दों को तो बहुत पढ़ लिया
सन्नाटे को गुनना होगा,
शोर बहुत है इस दुनिया में
नीरवता को चुनना होगा !
महानगर की अपनी ध्वनियाँ
गाँवों में भी शोर बढ़ रहा,
दिनभर वाहन आते-जाते
देर रात संगीत बज रहा !
कानों में मोबाईल लगा
कोकिल के स्वर सुनेगा कौन ?
कुक्कुट की ना बाँग सुन रहे
गऊओं का रंभाना मौन !
अपनों को भी नहीं सुन रहे
मन में भीषण शोर मचा है,
खुद की आवाजें भी दुबकीं
जग को भीतर बसा लिया है !
जाने किससे बात हो रही
दूजा कोई नहीं वहाँ है,
उस तक पहुँच नहीं हो पाती
निर्जन में ही जो रमता है !
बुधवार, जून 29
सच क्या है
सच क्या है
सच
सूक्ष्म है जो कहने में नहीं आता
सच
भाव है जो शब्दों में नहीं समाता
सच
एकांत है जहाँ दूसरा प्रवेश नहीं पाता
सच
सन्नाटा है जहाँ एक ‘तू’ ही गुंजाता
सच
में हुआ जा सकता है पर होने वाला नहीं बचता
सच
एक अहसास है जिससे इस जग का कोई मेल नहीं घटता
सच
बहुत कोमल है गुलाब से भी
सच
होकर भी नहीं होने जैसा है
सच
का राही चला जाता है अनंत की ओर
थामे
हुए हाथों में श्रद्धा की डोर !
शुक्रवार, अप्रैल 11
एक मौन सन्नाटा भीतर
एक मौन सन्नाटा भीतर
सहज कभी था आज जटिल है
कृत्य कुंद जब भाव सुप्त है,
एक मौन सन्नाटा भीतर
हुई शब्दों की धार लुप्त है !
नहीं लालसा, नहीं कामना
जीवन की ज्यों गति थमी है,
इक आधार मिला नौका को
बीच धार पतवार गुमी है !
अब न कहीं जाना राही को
घर से दूर निकल आया है,
ममता के पर कटे मुक्ति का
राग हृदय को अब भाया है !
न कोई संदेश भेजना
न ही कोई छाप छोड़ना,
लक्ष्य सभी पीछे छूटे हैं
नहीं राम को धनुष तोड़ना !
जीवन, जब जैसा मिल जाये
दोनों बाँह पसारे लेता,
जहाँ जरूरत जो भी दिखती
अंतर को खाली कर देता !
सोमवार, फ़रवरी 3
झर जाये हर चाह तो
झर जाये हर चाह तो
थम कर ठिठक जाता है
खाली हुआ मन !
रीझ-रीझ जाता है खुद पर ही
तकने लगता है निर्निमेष अंतहीन
निज साम्राज्य को....
मौन एक पसरा है
राग बज रहा हो फिर भी कोई जैसे
सन्नाटा गहन चहूँ ओर
धुन गूंज रही हो कोई जैसे
नजर न आता दूर तक
पर साथ चल रहा हो कोई
पर होता है हर कदम अहसास
दृष्टि हटते ही बाहर से
भीतर अनंत नजर आता है
नहीं दीवारें न कोई रास्ता
अंतहीन एक अस्तित्त्व
ढक लेता है रग-रग को
भर देता है तृप्ति भीतर
झरना ऐसा झरता है
हर लेता जो तृषा जन्मों की
जहाँ किया नहीं जाता कुछ भी
सब कुछ अपने आप घटता है
गूंजता है मानो कोई दिव्य आलाप
झर जाती है हर चाह
मन से जिस क्षण..
मंगलवार, मई 7
ऐसा भी होता जीवन में
ऐसा भी होता जीवन में
छा जाता भीतर सन्नाटा
कोई शब्द न लेता श्वास,
कविता जैसा कुछ उभरेगा
नहीं जगाता कोई आस !
जैसे बंद गली हो आगे
भान हुआ तो होती खीझ,
वैसे इस मन का सूनापन
कैसे इस पर जाएँ रीझ !
जहां खिले थे कमल हजारों
आज वहाँ मटियाला सा जल,
जहां रचे थे गीत हजारों
आज वहाँ न कोई हलचल !
ऐसा भी होता जीवन में
धारा समय की रुख मोड़ती,
आज जहाँ रेतीले मंजर
कभी वहीं थी नदी गुजरती !
दूर खड़ा होकर जो देखे
इस प्रपंच से न उलझे,
वरना गुंथे हुए हैं रस्ते
कैसे इसके बल सुलझें !
गुरुवार, सितंबर 20
शब्दों की सीमा बाहर है
शब्दों की सीमा बाहर है
शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई !
ऊपर ऊपर यूँ लगता है
शब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !
भीतर सभी अकेले जग में
खुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !
खुद से ही तो लड़ते रहते
खुद को ही तो घायल करते,
खुद को सम्बन्धों में पाके
खुद से ही तो दूर भागते !
हो निशब्द में जिस पल अंतर
एक ऊष्मा जग जाती है,
दूजे के भी पार हुई जो
उसकी खबर लिए आती है !
दिल से दिल की बात भी यहाँ
उसी मौन में घट जाती है,
शब्दों की सीमा बाहर है
भीतर पीड़ा छंट जाती है !
कोरे शब्दों से न होगा
मौन छुपा हो भीतर जिनमें,
वे ही वार करेंगे दिल पर
सन्नाटा उग आया जिनमें !
शुक्रवार, मई 11
शब्दातीत....
शब्दातीत....
नीरव सन्नाटा है जहाँ
एक अस्पृश्य मौन
अंतहीन चुप्पी !
निष्तरंगता...वहाँ कम्पन भी नहीं
सूक्ष्म कम्पन जहाँ
झील में फेंकी चट्टान सा प्रतीत होता है
जहाँ डूब जाती हैं
सागर की अतल गहराइयाँ भी
जहाँ खो सकते हैं
हजारों एवरेस्टों की ऊंचाइयाँ भी !
उसी निपट एकांत में
रचा गया था सृष्टि का खेल
अचल, अटूट, अजर उस सत्ता को
कोई नाम भी क्या दें...
सारे शब्दों का जहाँ होता है अंत
उसे शब्दातीत कहना भी तो व्यर्थ है
उस अनंत मौन में ऋषि के भीतर
शिव की तीसरी आँख खुलती है...!
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