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शुक्रवार, नवंबर 29

चमक

चमक 


चारों ओर से आकाश ने घेरा है 

धरा नृत्य कर रही है अपनी धुरी पर

और परिक्रमा भी उस सूर्य की 

जिसका वह अंश है  

ऐसे ही 

जैसे जीवन को सँभाला है 

अस्तित्त्व ने 

जैसे रत्न जड़ा हो सुरक्षित अंगूठी में 

आनंद में डोलती हर आत्मा 

परिक्रमा करती है परमात्मा की 

जैसे कृष्ण के चारों ओर राधा 

प्रेम की यह गाथा अनादि है 

और अनंत भी 

कितना भी झुठलाये मानव 

प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है

वही चमक है आँखों की 

वही नमक है जीवन का 

प्रेम का वह मोती सागर में गहरे छिपा है 

पर उसकी चमक  

सूरज की रोशनी से ही उपजी है 

ऐसे ही जैसे हर शिशु की मुस्कान में

माँ ही मुस्काती है !



सोमवार, मार्च 18

होली है !


होली है !

लो फिर आ गया रंगों का त्योहार
उमंगों-तरंगों में डूबने का वार
पर न जाने किसने रोक रखी है भीनी फुहार
ललक नहीं दिखती गाल रंगाने की
कौन जहमत उठाये घंटों रंग छुड़ाने की
ऐसी होली तो पहले कभी आयी न थी
मुंहतोड़ कभी ऐसी महँगाई न थी
कैसे बनें गुझियाँ खोये में मिलावट नजर आती है
तेल के दाम चढ़े कड़ाही कहाँ अब चढ़ाई जाती है
माना कि रंगों में अब उतनी चमक नहीं है
रसायनों के कारण वह मीठी सी गमक नहीं है
पर फागुन क्या जाने दुनिया का व्यवहार
आ ही जाता है डोलते-डुलाते हर बार
मदमाती ऋतु पर किसी का बस नहीं चलता
होली मनवाये बिना फागुन नहीं ढलता...