शुक्रवार, नवंबर 29

चमक

चमक 


चारों ओर से आकाश ने घेरा है 

धरा नृत्य कर रही है अपनी धुरी पर

और परिक्रमा भी उस सूर्य की 

जिसका वह अंश है  

ऐसे ही 

जैसे जीवन को सँभाला है 

अस्तित्त्व ने 

जैसे रत्न जड़ा हो सुरक्षित अंगूठी में 

आनंद में डोलती हर आत्मा 

परिक्रमा करती है परमात्मा की 

जैसे कृष्ण के चारों ओर राधा 

प्रेम की यह गाथा अनादि है 

और अनंत भी 

कितना भी झुठलाये मानव 

प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है

वही चमक है आँखों की 

वही नमक है जीवन का 

प्रेम का वह मोती सागर में गहरे छिपा है 

पर उसकी चमक  

सूरज की रोशनी से ही उपजी है 

ऐसे ही जैसे हर शिशु की मुस्कान में

माँ ही मुस्काती है !



8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 30 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  2. माँ सच ही मुस्कुराती है अपने बच्चों में ...

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  3. 'कितना भी झुठलाये मानव, प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है' - नितान्त सत्य कहती पंक्तियाँ ! सुन्दर रचना

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