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शुक्रवार, नवंबर 29

चमक

चमक 


चारों ओर से आकाश ने घेरा है 

धरा नृत्य कर रही है अपनी धुरी पर

और परिक्रमा भी उस सूर्य की 

जिसका वह अंश है  

ऐसे ही 

जैसे जीवन को सँभाला है 

अस्तित्त्व ने 

जैसे रत्न जड़ा हो सुरक्षित अंगूठी में 

आनंद में डोलती हर आत्मा 

परिक्रमा करती है परमात्मा की 

जैसे कृष्ण के चारों ओर राधा 

प्रेम की यह गाथा अनादि है 

और अनंत भी 

कितना भी झुठलाये मानव 

प्रेम उसके भीतर जीवित रहता है

वही चमक है आँखों की 

वही नमक है जीवन का 

प्रेम का वह मोती सागर में गहरे छिपा है 

पर उसकी चमक  

सूरज की रोशनी से ही उपजी है 

ऐसे ही जैसे हर शिशु की मुस्कान में

माँ ही मुस्काती है !



मंगलवार, मई 7

सदा रहे उपलब्ध वही मन

सदा रहे उपलब्ध वही मन 


यादों का इक बोझ उठाये 

मन धीरे-धीरे बढ़ता है, 

भय आने वाले कल का भर 

ऊँचे वृक्षों पर चढ़ता है !


वृक्ष विचारों के ही गढ़ता

भीति भी केवल एक विचार, 

ख़ुद ही ख़ुद को रहे डराता 

ख़ुद ही हल ढूँढा करता है !


कोरा, निर्दोष, सहज, सुंदर 

ऐसा इक मन लेकर आये, 

जीवन की आपाधापी में 

कहाँ खो गया, कौन बताये ?


पुन: उसको हासिल करना है 

शिशु सा फिर विमुक्त हँसना है, 

फूलों, तितली के रंगों को 

बालक सा दिल से तकना है !


आदर्शों को नव किशोर सा 

जीवन में प्रश्रय देना है, 

युवा हुआ मन प्रगति मार्ग पर 

ले जाये, संबल देना है !


इर्दगिर्द  लोगों की पीड़ा 

प्रौढ़ हुआ मन हर ले जाये,

वृद्ध बना मन आशीषों से 

सारे जग को भरे, हँसाये !


वर्तमान में रहना सीखे 

ऐसा ही मन मिट सकता है, 

सदा रहे उपलब्ध वही मन 

इस जग में कुछ कर सकता है !


शुक्रवार, अगस्त 18

वर्तमान भविष्य के हाथों में

वर्तमान भविष्य के हाथों में

नवजात शिशु की पकड़ भी 

कितनी मज़बूत है 

मुट्ठी में अंगुली थमाकर देखती है माँ   

 जकड़ लेता है 

दृढ़ता से

मुस्कान थिर है 

नींद में भी उसकी

माँ को लगता है 

जैसे वर्तमान ने 

भविष्य के हाथों में 

स्वयं को सौंप दिया हो ! 


बुधवार, अगस्त 17

भीतर रंग सुवास छिपे थे


भीतर रंग सुवास छिपे थे 


डगमग कदम पड़े थे छोटे

शिशु ने जब चलना था सीखा, 

लघु, दुर्बल काया नदिया की 

उद्गम पर जब निकसे धारा !


बार-बार गिर कर उठता जो  

इक दिन दौड़ लगाता बालक, 

तरंगिणी बीहड़ पथ तय कर 

तीव्र गति से बढ़े ज्यों धावक !


 खिला पुष्प जो आज विहँसता 

प्रथम बंद इक कलिका ही था, 

भीतर रंग सुवास छिपे थे 

किंतु कहाँ यह उसे ज्ञात था ?


हर मानव इक वृक्ष छिपाए 

बीज रूप में जग में आता, 

सीखा जिसने तपना, मिटना 

इक दिन  वह जीवन खिल जाता !


बूँद-बूँद से घट भरता है 

बने अल्प प्रयास महाशक्ति ,  

इक दिन में  परिणाम न आते  

बस छूटे नहीं धैर्य व युक्ति !


मंगलवार, सितंबर 7

प्रेम उस के घर से आया

प्रेम उस के घर से आया 


बन उजाला, चाँदनी भी 

इस धरा की और धाया


वृक्ष हँसते कुसुम बरसा

कभी देते सघन छाया 


नीर बन बरसे गगन से  

लहर में गति बन समाया


तृषित उर की प्यास बुझती 

सरस जीवन लहलहाया 


खिलखिलाती नदी बहती 

प्रेम उसकी खबर लाया 


मीत बनते प्रीत सजती 

गोद में शिशु मुस्कुराया 



 

रविवार, अगस्त 30

शिशु और वृद्ध

  शिशु और वृद्ध 

शैशव नहीं जानता दुनियादारी 

वह बेबात ही मुस्कुराता है 

पालने में पड़े-पड़े.. 

और भूखा हो जब पेट तो 

जमीन आसमान एक कर देता है !

उसका रुदन बंटा नहीं है दिल और दिमाग में अभी 

बालक होते-होते बुद्धि सुझाने लगती है 

झूठ और सच का फर्क 

बढ़ती ही जाती हैं दूरियां दिल और दिमाग की 

सीख लेता अपमान या ताड़ना से बचने के लिए 

असत्य का आश्रय लेना 

जन्म होता है फिर पाखंड का 

पर कभी भी सम्भावनाएं मृत नहीं होतीं 

जिन्दा रहता है निर्दोष बचपन 

ताउम्र हरेक के भीतर 

दूरी जितनी बढ़ेगी जिससे 

दुःख उसी अनुपात में बढ़ेगा 

दुखी होने या रहने को 

जब एक हथियार की तरह इस्तेमाल करता है व्यक्ति 

तब गिरना काफी हो गया  

पर कभी न कभी मुक्ति की चाह

अपना सिर उठाती है 

दुःख से मुक्ति, अहंकार से मुक्ति का ही दूसरा नाम है 

और यात्रा यदि जारी रही तो 

लौट आता है बचपन 

एक बार फिर तृप्त जीवन में 

वृद्धावस्था के ! 


गुरुवार, मई 28

शिशु भाव में कोई मानव

शिशु भाव में कोई मानव


नन्हा शिशु निःशंक हो जाता 
माँ के आँचल में आते ही ! 

जब से उसने आँखें खोलीं 
सम्मुख उसे खड़ा ही पाया,
साधन बनी मिलन का जग से
सब से परिचय था करवाया !

बालक यदि सदा शिशुभाव में 
माँ का आश्रय लेकर रहता, 
व्यर्थ अनेकों उपद्रवों से
खुद को सदा बचाये रखता !

किन्तु उसका यह अबोध मन 
माँ से भी विद्रोह करेगा, 
जिसने उसको जन्माया है 
उस जननी पर क्रोध करेगा !

जिसने सदा ही सुहित चाहा  
उसकी आज्ञा ठुकरायेगा, 
निश्च्छल निर्मल प्रेम को उसके 
समझ देर से ही पायेगा !

चाहे कितनी देर हुई हो 
माँ का दिल प्रतीक्षा करता,
परमात्मा का प्रेम वहीं तो 
सहज विशुद्ध रूप में बसता !

शिशु भाव में कोई मानव 
जब मन्दिर के द्वारे जाता 
सदा भवधरण की बाँहों का 
खुला निमंत्रण वह पा जाता !



शुक्रवार, जुलाई 12

पिता स्रोत है


पिता स्रोत है  

हाथों के झूले में सन्तान को
झुलाया होगा उसने अनगिन बार
तो कभी झुंझला कर.. दिया भी होगा गोद से उतार !
सुने होंगे बाल मुख से... गीत और कविताएँ
शिशु को देख दुर्बल भर गयी होगी कभी आँखें
 भारी हो गया होगा मन..अनाम चिंताओं से  
झलक नहीं आया होगा भय उन दुआओं से
संयत वस्त्रों में रहने की सीख
दी होगी किशोरी होती बालिका को
 लगाई भी होगी लापरवाहियों पर फटकार
 निज पैरों पर खड़े होने की सीख सी
कभी अनसुनी भी कर दी होगी पीड़ा की पुकार
 की होगी मदद कठिन गृह कार्य में
लाकर दी होंगी पत्रिकाएँ और पुस्तकें
 सुनाई होंगी अनगिनत कहानियाँ
सह ली होंगी कितनी नादानियाँ
कुदरत के प्रति प्रेम के बीज बोये होंगे
साथ बच्चों के हरियाली राह पर चले होंगे
कंधे पर बिठाया होगा जब थके होंगे नन्हे पांव
बिठा साईकिल दिखाए होंगे नये-नये गाँव  
नहीं की होगी व्यर्थ की प्रशंसा
 व्यर्थ ही लगा होगा.. अहंकार को पोषित करना
कभी बिना कहे ही समझ ली होगी मन की बात
कहलवायी होगी कभी बालक से फरियाद
पिता पालक है.. उसके होने से सुरक्षित है संतान
माँ भी गर्व है उसी का, है परिवार का मान !


गुरुवार, जून 18

वही एक है

वही एक है



एक मधुर धुन वंशी की ज्यों
एक लहर अठखेली करती,
एक पवन वासन्ती बहकी
एक किरण कलियों संग हँसती !

एक अश्रु चरणों पर पावन
एक दृष्टि हर ले जो पीड़ा,
 एक परस पारस का जैसे
एक शिशु करता हो क्रीड़ा !

एक परम विश्राम अनूठा
एक दृश्य अभिराम सजा हो,
एक स्वप्न युगों तक चलता  
एक महावर लाल रचा हो !

एक मन्त्र गूँजे अविराम
एक गीत लहरों ने गाया,
एक निशा सोयी सागर पर
एक उषा की स्वर्णिम काया !

बुधवार, अगस्त 6

वह

वह


चहका कूक बनकर
महका फूल बनकर,
उमगा दूब सा वह
विहंसा धूप सा वह !

खिलता हर कली में
फिरता हर गली में,
रचता नीड़ सुंदर
बहता नीर बनकर !

जलता तारिका बन
उड़ता सारिका बन
गिरता निर्झरों सा
पलता नव शिशु सा !

भजता भक्त बनकर
रचता कवि बनकर
गढ़ता बुत नये नित
बढ़ता उषा संग नित !



शनिवार, अक्टूबर 13

नहीं अचानक मरता कोई


नहीं अचानक मरता कोई


नव अंकुर ने खोली पलकें
घटा मरण जिस घड़ी बीज का,
अंकुर भी तब लुप्त हुआ था
अस्तित्त्व में आया पौधा !

मृत्यु हुई जब उस पौधे की
वृक्ष बना नव पल्लव न्यारे,
यौवन जब वृक्ष पर छाया
कलिकाएँ, पुष्प तब धारे !

किन्तु काल न थमता पल भर
वृक्ष को भी इक दिन जाना है,
देकर बीज जहां को अपना
पुनः धरा पर ही आना है !

नहीं अचानक मरता कोई
जीवन मृत्यु साथ गुंथे हैं,
पल-पल नव जीवन मिलता है
पल-पल हम थोड़ा मरते हैं !

शिशु गया, बालक जन्मा था
यौवन आता, गया किशोर
यौवन भी मृत हो जायेगा
मानव हो जाता जब प्रौढ़ !

वृद्ध को जन्म मिलेगा जिस पल
कहीं प्रौढता खो जायेगी,
नहीं टिकेगी वृद्धावस्था
इक दिन वह भी सो जायेगी

पुनः शिशु बन जग में आये
एक चक्र चलता ही रहता,
युगों-युगों से आते जाते
जीवन का झरना यह बहता !

बुधवार, जनवरी 11

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं


आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं

माँ को सम्मुख जब न पाए
शिशु का कोमल उर घबराए,
उसके नन्हें से कपोल पर
बूंदों की सुछवि गढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

प्रिय से दूरी सह न पाए
व्यथा नहीं भीतर रह पाए ,
जार-जार बहे थे आँसू
कॉपी के पन्ने कहते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

आँसू जब परिपक्व हो गए
अपना खारापन खो गए,
विरह भाव में पगे हुए से
शीतलता भीतर भरते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !

कभी बहे थे जो रोष में
दुःख, विषाद या किसी शोक में,
वही आज पर दुःख कातर हो
समानुभूति में बढ़ते हैं

आँसू भी सीढ़ी चढ़ते हैं !