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मंगलवार, सितंबर 10

बहा करे संवाद की धार

बहा करे संवाद की धार 

टूट गई वह डोर, बँधे थे 

जिसमें मन के मनके सारे, 

बिखर गये कई छोर, अति हैं  

प्यारे से ये रिश्ते सारे !


गिरा धरा पर पेड़ प्रीत का 

नीड़ सजे जिस पर थे सुंदर, 

 शाखा छोड़  उड़े सब पंछी

आयी थी ऐसी एक सहर !


 अब उनकी यादों का सुंदर 

चाहे तो इक कमल खिला लें, 

मिलजुल कर आपस में हम सब 

 मधुर गीत कुछ नये बना लें !


बहा करे संवाद की धार 

चुप्पी सबके दिल को खलती, 

जुड़े हुए हैं मनके अब भी 

चाहे डोरी नज़र न आती !


कभी कोई प्रियजन सदा के लिए विदा ले लेता है तो परिवार में एक शून्यता सी छा जाती है।

इसी भाव को व्यक्त करने का प्रयास इस रचना में किया गया है।


सोमवार, अगस्त 3

जो शेष रहा अपना होगा


जो शेष रहा अपना होगा

वह बनकर बदली बरस रहा 
फिर चातक उर क्यों तरस रहा, 
ले जाये कोई बाँह थाम
गर उन चरणों का परस रहा !

जो लक्ष्य गढ़े थे विलीन हुए 
अब पत्तों सा ही उड़ना हो, 
जब डोर बंधी हो जीवन से 
फिर और कहाँ अब जुड़ना हो !

बिखरेगा हिम टुकड़ों सा मन 
कल कल निनाद कर बह जाए,
जो शेष रहा अपना होगा 
तब तक हर पीड़ा सह जाए !

नहीं आयोजन विचारों का 
ना भावों की अब माल बने,
संवाद घटे बस चुप रहकर 
ना शब्दों का अब जाल बुनें !