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बुधवार, अगस्त 6

दुनिया तो बस इक दर्पण है

दुनिया तो बस इक दर्पण है


फूलों की सुवास बिखरायें 

या फिर तीखे बाण चलायें,

शब्द हमारे, हम ही सर्जक 

हमने ही तो वे उपजाए !


चेहरा भी व तन का हर कण 

रचना सदा हमारी अपनी, 

 अस्वस्थ हो तन या निरोगी 

ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी ! 


डर लगता है, गर्हित  दुनिया 

हम ही भीतर कहते आये,

अपने ही हाथों क़िस्मत में 

दुख के जंगल बोते आये !


कभी लोभवश, कभी द्वेषवश

कभी क्रोध के वश हो जाते, 

मन के इस सुंदर उपवन को 

पल भर में रौंद चले जाते !


कोई नहीं है शत्रु बाहर 

ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर, 

दुनिया तो बस इक दर्पण है 

‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !


शुक्रवार, जुलाई 6

अपनी ही छाया डसती है


अपनी ही छाया डसती है

ज्यों अपनी ही छाया
ढक लेती है सम्मुख मार्ग को
जब चल पड़ते हैं हम
प्रकाश से विमुख होकर !

वैसे ही विचार
भाव से विमुख हुआ यदि  
स्वयं के आग्रहों से होता है ग्रसित
कोई नहीं है अन्य
 कोई भी नहीं
जो हो मित्र होने को उत्सुक
तो शत्रु होने की कौन कहे...?
सब कैद हैं अपनी ही छायाओं में...

हर पल जब
स्वछन्द होता है विचार
बुनियाद रख रहा होता है
एक नए संघर्ष की
जो लड़ा जायेगा भविष्य में
 जिसका भागी होना होगा स्वयं को
और देह को भी भुगतना होगा दंड
जब जब आक्रामक होगा
चाहेगा मान
खोदता ही जायेगा गढ्ढे
जिसमें गिरने ही वाला है भविष्य में
भाव की ओर मुख किया विचार
प्रकाशित होता है
कोई छाया उसके सम्मुख नहीं पड़ती
खो जाता है अनंत की आभा में...