दुनिया तो बस इक दर्पण है
फूलों की सुवास बिखरायें
या फिर तीखे बाण चलायें,
शब्द हमारे, हम ही सर्जक
हमने ही तो वे उपजाए !
चेहरा भी व तन का हर कण
रचना सदा हमारी अपनी,
अस्वस्थ हो तन या निरोगी
ज़िम्मेदारी ख़ुद ही लेनी !
डर लगता है, गर्हित दुनिया
हम ही भीतर कहते आये,
अपने ही हाथों क़िस्मत में
दुख के जंगल बोते आये !
कभी लोभवश, कभी द्वेषवश
कभी क्रोध के वश हो जाते,
मन के इस सुंदर उपवन को
पल भर में रौंद चले जाते !
कोई नहीं है शत्रु बाहर
ख़ुद ही काफ़ी हैं इस ख़ातिर,
दुनिया तो बस इक दर्पण है
‘वही’ हो रहा इसमें ज़ाहिर !