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मंगलवार, अप्रैल 29

जीवन का जो मोल न जानें



जीवन का जो मोल न जानें 



दुश्मन मित्र बने बैठे हैं 

बाहर वाले लाभ उठाते, 

लोभ, मोह से बिंधे यदि जन 

बाहर भी निमित्त बन जाते !


पहले ख़ुद को बलशाली कर 

घर भेदी का करें सफ़ाया, 

बाहर वाले तोड़ सकें ना

बने सुरक्षा का इक घेरा !


जीवन का जो मोल न जानें 

ऐसे असुरों से लड़ना है, 

अंधकार में भटक रहा हैं

दर्प भ्रमित मन का हरना है !


सोमवार, जून 27

दीवाना मन समझ न पाए

दीवाना मन समझ न पाए


जीवन इक लय में बढ़ता है

जागे भोर साँझ सो जाये,

कभी हिलोर कभी पीड़ा दे

जाने क्या हमको समझाये !


नए नए आविष्कारों से

एक ओर यह सरल हो रहा,

प्रतिस्पर्धा बढ़ी ही जाती

जीना दिन-दिन जटिल हो रहा !


निज पथ का राही ही तो है

अपनी मति गति से चलता है,

फिर भी क्यों मानव का अंतर 

सहयोगी से भी डरता है !


मित्रों में ही शत्रु खोजता

प्रेम दिखाता घृणा छिपाए,

दोहरापन यही तोड़ रहा 

दीवाना मन समझ न पाए !


मन के पार उजाला बिखरा

नजर उठाकर भी ना देखे,

खुद का ही विस्तार हुआ है

स्वयं  लिखे हैं सारे लेखे  !






 

मंगलवार, मार्च 28

मिट जाने को जो तत्पर है


मिट जाने को जो तत्पर है

मरना जिसने सीख लिया है
उसको ही है हक जीने का,
साँझ ढले जो मुरझाये, दे
प्रातः उसे अवसर खिलने का !

मिट जाने को जो तत्पर है
वही बना रहता इस जग में,
ठोकर से जो न घबराए
बना रहेगा जीवन मग में !

सच की पूजा करने वाले
नहीं झूठ से बच सकते हैं,
जो सुन्दरता को ही चाहें
वही कुरूपता लख सकते हैं !

बोल-अबोल, मित्र-शत्रु भी
है पहलू इक ही सिक्के का,
सदा डोलता रहता मानव
 बना हुआ एक दोलक सा !




गुरुवार, फ़रवरी 25

उसका साथ


उसका साथ

एक अदृश्य हाथ सदा थामे रहता  
बढ़ो, तुम आगे बढ़ो !
कोमल स्पर्श उसका, सहला जाता  
छालों को पावों के
 स्मृति का आँचल समेट लेता
जब कभी बिखरते मोती मन के
जो सदा मित्र की तरह साथ दे   
उठा जमीन से बिठा फलक पर दे
एक खोल की तरह
वह छिपाए है अपने भीतर
उन्मुक्त होकर पर्वतों को लाँघ जाओ,
तेज बहती धार में भी या नहाओ !
उससे कुछ भी न बाहर है,
सब कुछ उसको ही जाहिर है
उसके कदमों पर अर्पित कर दो
अपनी मुस्कान की चमक
 धूपबाती बने स्वप्नों की महक
फौलादी इरादे ही आरती का थाल हो
जो सुनाया जाये उसको
अपने दिल की लगन से आगे
न कोई दूसरा हाल हो !

  


बुधवार, फ़रवरी 26

मिल गयी चाबी

मिल गयी चाबी


रात अँधेरी और घनेरी 

घर का रस्ता भूल गया वह,

दूर कहीं आवाज़ भयानक, 

भटक रहा भयभीत हुआ वह !


टप टप बूँदें, पवन जोर से 

ठंड हड्डियों को कंपाती,

तभी अचानक बिजली चमकी

इक दरवाज़ा  पड़ा  दिखाई !


​​झटपट पहुँचा द्वार खोलने, 

ताला जिस पर लटक रहा था,

सारी जेबें ली टटोल पर

चाबी कहीं गुमा आया था !


खड़ा रुआँसा भीगा, भूखा, 

याद आ रही कोमल शैया,

निद्रा-क्षुधा दोनों सताती, 

लेकिन वह था मजबूर बड़ा !


आसमान को तक के बोला 

तुम्हीं सहायक अब बन सकते,

तभी हाथ कंधे पर आया,

मित्र पूछता, क्या दे सकते?


खुशी और अचरज से बोला 

खोल द्वार चाहे जो माँगो,

तुरत घुमाई उसने चाबी

ला भीतर बोला, अब जागो !


मन ही तो वह भटका राही, 

द्वार आत्मा पर जो आता

बोध सखा स्वरूप  में आकर, 

बस पल में भीतर ले जाता I


मन पाता विश्राम जहाँ पर,

घर अपना वह सुंदर कितना

मिल गयी चाबी पाया तोष, 

‘हो’ होना चाहे फिर जितना I




शुक्रवार, जुलाई 6

अपनी ही छाया डसती है


अपनी ही छाया डसती है

ज्यों अपनी ही छाया
ढक लेती है सम्मुख मार्ग को
जब चल पड़ते हैं हम
प्रकाश से विमुख होकर !

वैसे ही विचार
भाव से विमुख हुआ यदि  
स्वयं के आग्रहों से होता है ग्रसित
कोई नहीं है अन्य
 कोई भी नहीं
जो हो मित्र होने को उत्सुक
तो शत्रु होने की कौन कहे...?
सब कैद हैं अपनी ही छायाओं में...

हर पल जब
स्वछन्द होता है विचार
बुनियाद रख रहा होता है
एक नए संघर्ष की
जो लड़ा जायेगा भविष्य में
 जिसका भागी होना होगा स्वयं को
और देह को भी भुगतना होगा दंड
जब जब आक्रामक होगा
चाहेगा मान
खोदता ही जायेगा गढ्ढे
जिसमें गिरने ही वाला है भविष्य में
भाव की ओर मुख किया विचार
प्रकाशित होता है
कोई छाया उसके सम्मुख नहीं पड़ती
खो जाता है अनंत की आभा में...

शनिवार, सितंबर 3

क्या यही है जिंदगी


क्या यही है जिंदगी

जिसको भी अपनाया हमने
वे साथी संग छोड़ चले हैं,
जिसको हमने अपना माना
वे ही नाता तोड़ चले हैं !

नन्हे खेल खिलौने छूटे
मित्र, दोस्त, सहेली छूटे,
यौवन की सुंदरता छूटी
बल शक्ति इन्द्रियों की छूटी !

कहाँ गया वह विद्यालय का
प्रांगण प्यारा जहां खेलते,
कहाँ गया कार्य स्थल वह
जहां प्रमुख बन रहे डोलते !

अब न कुछ भी शेष रहा है
जीवन का श्रम व्यर्थ सहा है,
किसे तक रहीं सूनी ऑंखें
किसके हित यह अश्रु बहा है !

जिनका स्मरण स्फूर्ति देता था
प्रियतम भी अब कहाँ खो गए,
साथ चले हैं अब तक जिनके
साथी गहरी नींद सो गए !

मैं न किसी का कोई न मेरा
भाव यह दृढ होता जाता है,
एक परम शक्ति का मैं हूँ
और न कुछ नजर आता है !

अनिता निहलानी
३ सितम्बर २०११