क्या यही है जिंदगी
जिसको भी अपनाया हमने
वे साथी संग छोड़ चले हैं,
जिसको हमने अपना माना
वे ही नाता तोड़ चले हैं !
नन्हे खेल खिलौने छूटे
मित्र, दोस्त, सहेली छूटे,
यौवन की सुंदरता छूटी
बल शक्ति इन्द्रियों की छूटी !
कहाँ गया वह विद्यालय का
प्रांगण प्यारा जहां खेलते,
कहाँ गया कार्य स्थल वह
जहां प्रमुख बन रहे डोलते !
अब न कुछ भी शेष रहा है
जीवन का श्रम व्यर्थ सहा है,
किसे तक रहीं सूनी ऑंखें
किसके हित यह अश्रु बहा है !
जिनका स्मरण स्फूर्ति देता था
प्रियतम भी अब कहाँ खो गए,
साथ चले हैं अब तक जिनके
साथी गहरी नींद सो गए !
मैं न किसी का कोई न मेरा
भाव यह दृढ होता जाता है,
एक परम शक्ति का मैं हूँ
और न कुछ नजर आता है !
अनिता निहलानी
३ सितम्बर २०११