बुधवार, अगस्त 22

कवि की आत्मा




कवि की आत्मा

एक कविता हूँ मैं
अपने हाथों से लिखा है
जिसे परमात्मा ने
काव्य धर्म है जिसका.....

या अनंत के कैनवास पर
उसकी कूंची से खिंचा
एक स्ट्रोक
उत्सव कर्म है जिसका....

लहर हूँ एक
महाविस्तीर्ण सागर में
 सृष्टि के
नृत्य ही होना है जिसका....

सोमवार, अगस्त 20

ईद मुबारक



ईद मुबारक 

एक ही अल्लाह
एक ही रब है,
एक खुदा है
एक में सब है !

अंत नहीं उसकी रहमत का
करें शुक्रिया हर बरकत का,
उसकी बन्दगी जो भी करता  
क्या कहना उसकी किस्मत का !

जग का रोग लगा बंदे को
नाम दवा कुछ और नहीं है,
वही है मंजिल वही है रस्ता
तेरे सिवा कोई ठौर नहीं है !

सारे जहां का जो है मालिक
छोटे से दिल में आ रहता,
एक राज है यही अनोखा
जाने जो वह सुख से सोता !

तू ही अव्वल तू ही आखिर
तू अजीम है तू ही वाहिद,
दे सबूर तू नूर जहां का
तू ही वाली इस दुनिया का !

अल कादिर तू है कबीर भी
तू हमीद और तू मजीद भी,
दाता है, तू रहीम, रहमान
अल खालिक तू मेहरबान !

तेरे कदमों में दम निकले
दिल में एक यही ख्वाहिश है,
तेरा नाम सदा दिल में हो
ईद पे तुझसे फरमाइश है !





 

शनिवार, अगस्त 18

युवा कवि यशवंत माथुर की कवितायें- खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं यशवंत माथुर, ब्लॉग जगत का यह एक चिर परिचित नाम है, नई पुरानी हलचल के संचालक, जिनका पूरा नाम यशवंत राजबली माथुर है. आठ वर्ष की उम्र से अपने पिता को देखकर इन्होने लिखना शुरू किया. इस संकलन में इनकी आठ कवितायें हैं.
इनकी कविताओं का मूल स्वर एक तलाश है, लेकिन जीवन के पथ पर चलते हुए यह  बार-बार खुद को उसी मुकाम पर पाते हैं, यह एक ऐसी सच्चाई है जिसकी ओर बहुत कम लोग देख पाते हैं, जीवन एक रेखा में नहीं बढ़ता एक वर्तुल में घूमता है, सृष्टि में जैसे लौट-लौट कर वही मौसम आते हैं जीवन में भी कुछ ऐसा है जो बार बार दोहरता है. इनकी पहली कविता है ‘उड़ता रहूँ’ –

अब गिद्ध नहीं हैं आसमां में
तो सोच रहा हूँ
बेखौफ परिंदों की तरह
भर लूँ उड़ान
..
अनंत ऊँचाईयों तक
...
जहाँ सिर्फ
मेरी ही आवाज हो
मेरा ही नीरस गीत हो
और मेरा ही साज हो
...
मैं जानता हूँ
कोई तो होगा साथ
जो थामेगा
...
रहने देगा गतिमान
ऊपर की ही ओर
...
डरता हूँ
नीचे गिरने से
..
क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण का रूप
धर कर
भूखा काल
नीचे
कर रहा है
मेरी प्रतीक्षा 

दूसरी कविता ‘सम्पन्नता का आधार’ में उन सामान्य जन की बात है, जो स्वयं तो छोटे से घर में, जिसकी छत टीन की है, गुजर करते हैं, पर अपनी मेहनत से बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं का निर्माण करते हैं.

हर रोज
चौराहे  पर
दिखती है भीड़
लोगों की कारों में
आते जाते लोगों की
सरसराते भागते लोगों की
...
घिसट घिसट कर चलते लोगों की
फुटपाथों पर सोते लोगों की
...
और उसी भीड़ में कहीं
फावड़ा छेनी हथौड़ा थामे भी
दिख जाते हैं नर नारी
और गोद में शिशु
जिनकी अपनी ही छोटी सी दुनिया है
..
फावड़ा थामे वो हाथ
मैले से कपड़ों में सिमटे वो लोग  
आधार हैं
सम्पन्नता का
फुटों-मीटरों ऊँची दीवारों पर
एक पटरे पर अटकी रहती है
जिनकी सांसों की डोर
...
गुमनाम
ठीक वैसे ही 
जैसे अपने में खोई रहती है
अट्टालिकाओं की नींव.

‘मुस्कुरा रहा हूँ’ कविता एक सहज आत्मस्वीकृति है, जो दिल को गहरे तक छू जाती है -

अच्छा या बुरा जो चाहे समझ लो मुझको
जो मेरा मन कहे वो करता आ रहा हूँ
कितने भी तीर चुभो दो भले ही
मैं मुस्कुरा  रहा हूँ
...
मौन रहकर भी मैं कुछ न कुछ कहता जा रहा हूँ
..
मैं मुस्कुरा रहा हूँ
कि मुस्कुराना फितरत है मेरी
खुद की नजरों में पल पल
मैं चढ़ता जा रहा हूँ

‘नए दौर की ओर’ में कवि फिर से कुछ नयी मंजिलों को पाने के लिये ख्वाब देखता है, और उसे इस बात का पता है कि मंजिल वहाँ भी नही है वहाँ से आगे फिर एक नयी तलाश शुरू होगी

शरू हो गया
फिर एक नया दौर
कुछ आशाओं का
महत्वाकांक्षाओं का
..
ये नया दौर
क्या गुल खिलाएगा
..
नहीं पता
...
वक्त की कठपुतली बना
चला जा रहा हूँ
एक नए दौर की ओर
जहाँ
...
फिर से इंतजार करूँगा
एक और
नए दौर का

अगली कविता ‘अजीब से ख्याल’ में कवि मन में उमड़ते ख्यालों को शब्द देता है और पाठकों को भी आमन्त्रण देता है कि वे भी अपने मन की बातों को शब्द दें, उन्हें मन में ही न रह जाने दें

कभी सोते में
सपनों के सतरंगी समुन्दर में
कभी कुछ कहते हुए
कभी कुछ सुनते हुए
...
कहीं काम पर पसीना बहता
मजदूरों को देखकर
शीत लहरी में ठिठुरते हुए
 ...
वक्त बेवक्त
कुछ ख्याल
अक्सर मन में आते हैं
...
डरता हूँ मेरे अजीब से
ख्यालों को सुनकर
वि हँस न दें ..
पर आखिर मैं क्यों चुप रहूँ
क्यों न कहूँ अपने मन की
...
इन ख्यालों को लिख देना चाहता हूँ
कह देना चाहता हूँ
उन से
जो इन ख्यालों का
ख्याल रखते हों
दिल से !

‘मोड़’ कविता में उसी दोहराव की बात है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है-
कल जहाँ था
आज फिर आ खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
...
उस मोड़ पर
सब कुछ
बिल्कुल वैसा ही है
..
यह दोहराव अचानक
क्या सिर्फ मेरे साथ है
या दोहराव होता है
कभी न कभी
सबके साथ
...
जब मिल जाता है
यूँ ही
कोई भुला बिसरा मोड़
जिससे होकर गुजरना ही है
क्यों कि
न कोई विकल्प
और न कोई और
रास्ता ही है
इस एक मोड़ के सिवा

‘मौसम और मन’ में कवि मन के विभिन्न मूड्स की तुलना मौसम के बदलते रूपों से करता है.

...
बदलता है मौसम
पल पल रंग

मन भी तो ऐसा ही है
..
कभी अनुराग रखता है
प्रेम में पिघलता है
और कभी जलता है
द्वेष की गर्मी में
...
क्या हो रहा है
सही या गलत
समझ नहीं पता है
जम सा जाता है मन
...
जब बरसता है
बेहिसाब बरसता ही चला जाता है
...
खुद तो भीगता ही है
सबको भिगोता भी है
...
वसंत जैसा मन !
हर पल खुशनुमा सा
..
अपने मन की बातें करता है
..
खेतों में मुस्कुराते
सरसों के फूलों में
जैसे देख रहा हो
अपना अक्स

मौसम और मन
कितनी समानता है
..
ज्वालामुखियों के जैसी
और कभी
बिल्कुल शांत
आराम की मुद्रा में
लेटी हुई धरती के जैसी

युवा कवि अंतिम रचना ‘डगमगाते कदम’ में बचपन की स्मृतियों को आधार बनाता है, अभिमान को साधने के लिये आत्म मंथन के लिये कभी कभी ठोकर खाना भी जरूरी होता है.

जब चलना सीखा था
बचपन में
...
डगमगाते कदमों को
प्रेरणा मिल ही जाती थी
तालियों की
मुस्कुराहटों की
बल मिल ही जाता था
जमीन पर स्थिर करने को
नन्हें नन्हें कदमों को
...
कदम अब भी लडखडाते हैं
डगमगाते हैं
डगमगाना जरूरी है
गिरना जरूरी है
...
परिवर्तन के लिये
जरूरी हैं
ये डगमगाते हुए से कदम !

जीवन में परिवर्तन पल-पल हो ही रहा है पर अपेक्षित परिवर्तन हो इसके लिये जरूरी है आत्म मंथन और चिंतन, इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे जीवन के कई सूत्र मिले, आशा है आप भी अपने भीतर इन्हें गूंजता पाएंगे.    

मंगलवार, अगस्त 14

प्रेम पूर्णता की तलाश है


प्रेम पूर्णता की तलाश है

जब मैं, तुम में खो जाती है
तब जो शेष रहता है
वही प्रेम है
मैं और तुम अधूरे हैं पृथक-पृथक
तलाश है हमें पूर्णता की
अनंत काल से हैं आतुर एक होने को
पर कुछ न कुछ आ ही जाता है मध्य में  
कभी अहंकार, कभी संसार
चलो गिरा दें सारी दीवारें
मिटा दें सारे भेद
एक बार तो पूर्णता के चरम क्षण को करें महसूस
तुम एक थे अनेक हुए
संसार बसाया 
पर चैन न पाया
उन बिछुड़े हुओं से मिलने का ख्याल
बार-बार तुम्हें धरा पर लाया
लुभाने को तुमने लाखों सरंजाम किये
पर भीतर-भीतर खुद तक जाने के भी
सारे इंतजाम किये
दो के बीच तीसरे की जगह कहाँ है
प्रेम की यह गली इतनी संकरी जो है
अब जो भी मिलन होगा वह अंतिम मिलन होगा
पूर्णता तक ही बढ़ेगा हमारा हर कदम...

शनिवार, अगस्त 11

डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला की कवितायें


जीती रही जन्म जन्म
पुनश्च मरती रही,
मर मर जीती रही पुनः
चलता रहा सृष्टिक्रम
अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः

यह पंक्तियाँ पढ़कर आपको अवश्य डॉक्टर नूतन की याद हो आयी होगी. यही हैं हमारी अगली कवयित्री, खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी छह रचनाएँ हैं. देहरादून में जन्मी नूतन श्रीनगर उत्तराखंड की निवासिनी हैं. इनके पति भी डॉक्टर हैं. मेडिकल व्यवसाय से जुड़ी इनकी कई रचनाएँ इनके ब्लॉग में हम सभी ने पढ़ी हैं.
पहली कविता नागफनी और गुलाब में ईर्ष्या के भाव से मुक्त होने का लाजवाब सूत्र मिलता है-
...
एक दिन नागफनी एकांत से झुंझला कर
ईर्ष्या से बोला
ऐ गुलाब !
घायल तू भी करता है अपने शूलों के दंश से
फिर भी सबका प्रिय है तू अपने फूलों और गंध से
...
लेकिन मुझमें ही ज्यादा ऐब हों ऐसा मुझे ज्ञान नहीं
..
फिर भी मैं निर्वासित हूँ माली द्वारा परित्यक्त हूँ
....
सुन कर गुलाब ने चुप्पी तोड़ी
धीमे से बोला
मुझको करता है माली बेहद प्यार इससे मैं अनभिज्ञ नहीं
फिर भी जाने क्यों मैं माली का कृतज्ञ नहीं
...
चढ़ा दिया जाता हूँ मैं देवताओं के शीश पर
मेरे खिलते सुकुमार सुमन
...
इन सबके बीच मुझे बस खोना है
उनकी इच्छाओं के लिये मुझे तो सिर्फ अर्पित होना है
...
मुझे नहीं मिल पाया मेरा खुला आसमान मेरी जमीन
मैं बंद दीवारों में घुटता रहा हूँ तू कर यकीन

..
ऐ नागफनी
देख तू ना बंधा है इस सुंदर दिखने वाली कैद में
मिला तुझे अपना एक विस्तृत संसार माली रूपी मोक्षद से
..
जुझारू तेरे निहित गुण से ऊर्जस्वी हो गया है तू
प्रस्फुटित होते पुष्प तुझ पर, खुद मुकुलित हो गया है तू
...
गुलाब की बातों पर नागफनी खुशी से मुस्कराया

दूसरी कविता मौन बातें ध्यान के अनुभव से उपजी प्रतीत होती है-
भीतर मौन है, कभी मन अशान्त होता है तो यही मौन की निधि उसे शांत करती है

बातें
बेहिसाब बातें
हलचल मचा देती हैं
नटखट मछलियों सी
मन के शांत समन्दर में
....
बेसुध मैं अनंत शांत यात्रा में
..
लेकिन जब
मन रहता है मौन
और शब्द बिन आवाज
बोलने लगते हैं कुछ
...
छिड़ जाता है एक संग्राम
उनके कटु शब्दों का
..
तब बलिदानी होता है
मौन
...
करता है शांति का पुनर्स्थापन

खुद से खुद की बातें में कवयित्री आत्मालोचन करती है...

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है
कभी ईर्ष्या उफनती
कभी लोभ, क्षोभ
..
पर न कभी हारी हूँ कभी
...
क्योंकि रोशन दीया
था सँग मेरे
मेरी रूह में ईश्वर का बसेरा है

वह स्त्री और चित्रकार तथा तुम बदले न हम दोनों प्रेम के भिन्न रूपों को चित्रित करती हैं

वह एक कलाकार था एक चित्रकार
...
बदला था दिल
बदल गए थे पात्र
महज कुछ तूलिकाएं जो जुड़ी थीं उस स्त्री की यादों से
फेंक दी गयीं
...
निशब्द थी स्र्त्री, मौन अवाक
...
और वह मूक जलती रही
तीव्र प्रेम की वेदना में धुँआ धुँआ होती रही
...
कहती थी वह
चित्रकार तू जलाता रह
..
और नए रंगों को, नयी आकृतियों को अपने कैनवास में पनाह दे
...

तुम न बदले न हम में उम्र के साथ साथ सम्बन्धों में आये परिवर्तन का जिक्र है-

समय का पहिया
घूमता, फैलता, खींचता, समय
बढती उमर  
...
तुम वही हो
पर कितने बदल गए हो
और तुम्हारा नजरिया बदल गया है
...

पर
खुद को समझी नहीं मैं
शायद नजरिया मेरा ही बदल गया है
धुधला रही हैं नजरें मेरी
एक झुर्री भी इठला रही माथे पर मेरे
और मुझे मोटा चश्मा चढ़ गया है

सहज, सरल शब्दों से पिरोयी नूतन जी की भावपूर्ण कवितायें पढ़कर पाठकों को रस का अनुभव होगा, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है.