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शनिवार, अगस्त 2

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा

जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

कोई कहीं तलाश न करता 

भीतर न सवाल कोई शेष, 

नहीं राग अब सुख का उर में 

रह नहीं गया दुखों से द्वेष !


एक खेल सा जीवन लगता 

 अब न मोह में डाले माया,

एक अनंत मिला है बाहर 

एक शून्य भीतर जग आया !


इस पल में ही छुपा काल है 

एक बिंदु में सिंधु समाया, 

कण-कण में ब्रह्मांड बसे हैं 

इसी पिंड में उसको पाया !


जीवन एक अदृश्य ज्योति सा 

चारों ओर हवा सा बिखरा, 

सुमिरन की सुवास इक हल्की 

श्वासों से जाता है छितरा !


शुक्रवार, जनवरी 10

तलाश




तलाश 

हर तलाश ख़ुद से दूर लिए जाती है 
जिंदगी हर बार यही तो सिखाती है 

खुदी में डूब कर ही उसको पाया है 
अगर ढूँढा किसी ने सिर्फ़ गँवाया है 

दिल यह छोटा सा भला कब खोज पाएगा
मिलन हुआ भी तो कहाँ उसे बैठायेगा 

हो रही है सारी खोज जल की मरुथल में 
 न बुझेगी प्यास जिगर सूना रह जाएगा 

उठाकर आँख जरा देखो यहीं पाओगे 
वरना यूँही यह दिल तकता रह जाएगा

प्रीत का बीज सोया उसे जगाना है 
खिल उठेगा खुशबुओं से भर जाएगा  

मंगलवार, अगस्त 16

खुद की ही तलाश में हर दिल

खुद की ही तलाश में हर दिल 


'मैं' जितना 'तुझमें' रहता है 

उतने से ही मिल पाता है, 

खुद की ही तलाश में हर दिल 

संग दूजे जुड़ा करता है !

 

जितना हमने बाँटा जग में 

उतने पर ही होता हक़ है, 

बिन  बिखरे बदली कब बनती 

 इसमें नहीं मेघ  को शक है !

 

अंशी अंश मिलें इस ख़ातिर 

रूप हज़ारों धर लेते हैं,  

खुद को मंदिरों में सजाया 

खुद ही सजदे कर लेते हैं !

 

कोई नहीं सिवाय हमारे 

जिससे तिल भर का नाता है, 

भेद कभी खुल जाए जिस पर 

कण-कण  जगती  का भाता है !

 

सहज हुआ वह बंजारा फिर 

बस्ती-बस्ती गीत सुनाता , 

स्वयं  से मिलने की चाह में 

सारे  जग में घूमा-फिरता  !


शनिवार, जून 18

'है' एक अपार अचल कोई

'है' एक अपार अचल कोई

गर ‘है’ में टिकना आ जाए 

 ‘नहीं’ का कोई सवाल नहीं, 

तृण भर भी कमी कहाँ ‘है’ में 

‘नहीं’ उलझन की मिसाल वहीं !


‘नहीं’ कुछ भी हल नहीं होता 

जग सागर में उठतीं लहरें, 

‘है’  एक अपार अचल कोई 

बन शीतलता देता पहरे !


‘है’ की तलाश में ‘नहीं’ लगा 

हल भी मिलता आधा आधा, 

कैसे यह बुझनी सुलझेगी 

जब तक न बने उर यह राधा !


रविवार, सितंबर 16

तलाश



तलाश 

जाने किसकी प्रतीक्षा में सोते नहीं नयन
जाने किस घड़ी की आस में
जिए चले जाता है जीवन
शायद वह स्वयं ही प्यास बनकर भीतर प्रकटा है
अपनी ही चाहत में कोई प्राण अटका है
सब होकर भी जब कुछ भी नहीं पास अपने
नहीं लुभाते अब परियों के भी सपने
इस जगत का सारा मायाजाल देख लिया
उस जगत का सारा इंद्रजाल भी चूक गया
मन कहीं नहीं टिका.. अब कौन सा पड़ाव ?
किस वृक्ष की घनी छाँव
कैसे मिलेगा मन का वह भाव
या फिर मन ही खो जाने को है
अब अंतिम सांसे गिनता है
अब यह पीड़ा भी कहनी होगी
जीने से पहले मरने की क्रीड़ा तो सहनी होगी
दिल की गहराई में जो वीणा बजती है
जहाँ से डोर जीवन की बढ़ती है
उस अतल में जाना होगा
असीम निर्जन में स्वयं को ठहराना होगा..
जब कोई तलाश बाकी नहीं रहती
तभी अक्सर खुल जाता है द्वार
जिस अनजाने लोक का...

सोमवार, जून 5

राग मधुर भीतर जो बहता


राग मधुर भीतर जो बहता

क्या कहना अब क्या सुनना है
मौन हुए उसको गुनना है,
होकर भी जो नहीं हो रहा
उस हित भाव पुष्प चुनना है !

क्या चाहें किसको खोजें अब
अंतहीन तलाश हर निकली,
मिलकर भी जो नहीं मिला है
कदमों पर उसके झुकना है !

क्या पाना अब किसे सहेजें
किसका लोभ ? लाभ अब चाहें,
छूट रहा पल-पल यह जीवन
श्वासों का अंबर बुनना है !

राग मधुर भीतर जो बहता
जर्रा जर्रा जिसे समेटे,
हट जाना राहों से उसकी
अनायास उसको बहना है !

अंतर में जो दीप जल रहा
राह दिखाता वही अंत में,
रोशन कर दे कंटक सारे
एक-एक कर सब चुनना है !

शनिवार, अगस्त 18

युवा कवि यशवंत माथुर की कवितायें- खामोश ख़ामोशी और हम में


खामोश ख़ामोशी और हम के अगले कवि हैं यशवंत माथुर, ब्लॉग जगत का यह एक चिर परिचित नाम है, नई पुरानी हलचल के संचालक, जिनका पूरा नाम यशवंत राजबली माथुर है. आठ वर्ष की उम्र से अपने पिता को देखकर इन्होने लिखना शुरू किया. इस संकलन में इनकी आठ कवितायें हैं.
इनकी कविताओं का मूल स्वर एक तलाश है, लेकिन जीवन के पथ पर चलते हुए यह  बार-बार खुद को उसी मुकाम पर पाते हैं, यह एक ऐसी सच्चाई है जिसकी ओर बहुत कम लोग देख पाते हैं, जीवन एक रेखा में नहीं बढ़ता एक वर्तुल में घूमता है, सृष्टि में जैसे लौट-लौट कर वही मौसम आते हैं जीवन में भी कुछ ऐसा है जो बार बार दोहरता है. इनकी पहली कविता है ‘उड़ता रहूँ’ –

अब गिद्ध नहीं हैं आसमां में
तो सोच रहा हूँ
बेखौफ परिंदों की तरह
भर लूँ उड़ान
..
अनंत ऊँचाईयों तक
...
जहाँ सिर्फ
मेरी ही आवाज हो
मेरा ही नीरस गीत हो
और मेरा ही साज हो
...
मैं जानता हूँ
कोई तो होगा साथ
जो थामेगा
...
रहने देगा गतिमान
ऊपर की ही ओर
...
डरता हूँ
नीचे गिरने से
..
क्योंकि
गुरुत्वाकर्षण का रूप
धर कर
भूखा काल
नीचे
कर रहा है
मेरी प्रतीक्षा 

दूसरी कविता ‘सम्पन्नता का आधार’ में उन सामान्य जन की बात है, जो स्वयं तो छोटे से घर में, जिसकी छत टीन की है, गुजर करते हैं, पर अपनी मेहनत से बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं का निर्माण करते हैं.

हर रोज
चौराहे  पर
दिखती है भीड़
लोगों की कारों में
आते जाते लोगों की
सरसराते भागते लोगों की
...
घिसट घिसट कर चलते लोगों की
फुटपाथों पर सोते लोगों की
...
और उसी भीड़ में कहीं
फावड़ा छेनी हथौड़ा थामे भी
दिख जाते हैं नर नारी
और गोद में शिशु
जिनकी अपनी ही छोटी सी दुनिया है
..
फावड़ा थामे वो हाथ
मैले से कपड़ों में सिमटे वो लोग  
आधार हैं
सम्पन्नता का
फुटों-मीटरों ऊँची दीवारों पर
एक पटरे पर अटकी रहती है
जिनकी सांसों की डोर
...
गुमनाम
ठीक वैसे ही 
जैसे अपने में खोई रहती है
अट्टालिकाओं की नींव.

‘मुस्कुरा रहा हूँ’ कविता एक सहज आत्मस्वीकृति है, जो दिल को गहरे तक छू जाती है -

अच्छा या बुरा जो चाहे समझ लो मुझको
जो मेरा मन कहे वो करता आ रहा हूँ
कितने भी तीर चुभो दो भले ही
मैं मुस्कुरा  रहा हूँ
...
मौन रहकर भी मैं कुछ न कुछ कहता जा रहा हूँ
..
मैं मुस्कुरा रहा हूँ
कि मुस्कुराना फितरत है मेरी
खुद की नजरों में पल पल
मैं चढ़ता जा रहा हूँ

‘नए दौर की ओर’ में कवि फिर से कुछ नयी मंजिलों को पाने के लिये ख्वाब देखता है, और उसे इस बात का पता है कि मंजिल वहाँ भी नही है वहाँ से आगे फिर एक नयी तलाश शुरू होगी

शरू हो गया
फिर एक नया दौर
कुछ आशाओं का
महत्वाकांक्षाओं का
..
ये नया दौर
क्या गुल खिलाएगा
..
नहीं पता
...
वक्त की कठपुतली बना
चला जा रहा हूँ
एक नए दौर की ओर
जहाँ
...
फिर से इंतजार करूँगा
एक और
नए दौर का

अगली कविता ‘अजीब से ख्याल’ में कवि मन में उमड़ते ख्यालों को शब्द देता है और पाठकों को भी आमन्त्रण देता है कि वे भी अपने मन की बातों को शब्द दें, उन्हें मन में ही न रह जाने दें

कभी सोते में
सपनों के सतरंगी समुन्दर में
कभी कुछ कहते हुए
कभी कुछ सुनते हुए
...
कहीं काम पर पसीना बहता
मजदूरों को देखकर
शीत लहरी में ठिठुरते हुए
 ...
वक्त बेवक्त
कुछ ख्याल
अक्सर मन में आते हैं
...
डरता हूँ मेरे अजीब से
ख्यालों को सुनकर
वि हँस न दें ..
पर आखिर मैं क्यों चुप रहूँ
क्यों न कहूँ अपने मन की
...
इन ख्यालों को लिख देना चाहता हूँ
कह देना चाहता हूँ
उन से
जो इन ख्यालों का
ख्याल रखते हों
दिल से !

‘मोड़’ कविता में उसी दोहराव की बात है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है-
कल जहाँ था
आज फिर आ खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
...
उस मोड़ पर
सब कुछ
बिल्कुल वैसा ही है
..
यह दोहराव अचानक
क्या सिर्फ मेरे साथ है
या दोहराव होता है
कभी न कभी
सबके साथ
...
जब मिल जाता है
यूँ ही
कोई भुला बिसरा मोड़
जिससे होकर गुजरना ही है
क्यों कि
न कोई विकल्प
और न कोई और
रास्ता ही है
इस एक मोड़ के सिवा

‘मौसम और मन’ में कवि मन के विभिन्न मूड्स की तुलना मौसम के बदलते रूपों से करता है.

...
बदलता है मौसम
पल पल रंग

मन भी तो ऐसा ही है
..
कभी अनुराग रखता है
प्रेम में पिघलता है
और कभी जलता है
द्वेष की गर्मी में
...
क्या हो रहा है
सही या गलत
समझ नहीं पता है
जम सा जाता है मन
...
जब बरसता है
बेहिसाब बरसता ही चला जाता है
...
खुद तो भीगता ही है
सबको भिगोता भी है
...
वसंत जैसा मन !
हर पल खुशनुमा सा
..
अपने मन की बातें करता है
..
खेतों में मुस्कुराते
सरसों के फूलों में
जैसे देख रहा हो
अपना अक्स

मौसम और मन
कितनी समानता है
..
ज्वालामुखियों के जैसी
और कभी
बिल्कुल शांत
आराम की मुद्रा में
लेटी हुई धरती के जैसी

युवा कवि अंतिम रचना ‘डगमगाते कदम’ में बचपन की स्मृतियों को आधार बनाता है, अभिमान को साधने के लिये आत्म मंथन के लिये कभी कभी ठोकर खाना भी जरूरी होता है.

जब चलना सीखा था
बचपन में
...
डगमगाते कदमों को
प्रेरणा मिल ही जाती थी
तालियों की
मुस्कुराहटों की
बल मिल ही जाता था
जमीन पर स्थिर करने को
नन्हें नन्हें कदमों को
...
कदम अब भी लडखडाते हैं
डगमगाते हैं
डगमगाना जरूरी है
गिरना जरूरी है
...
परिवर्तन के लिये
जरूरी हैं
ये डगमगाते हुए से कदम !

जीवन में परिवर्तन पल-पल हो ही रहा है पर अपेक्षित परिवर्तन हो इसके लिये जरूरी है आत्म मंथन और चिंतन, इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे जीवन के कई सूत्र मिले, आशा है आप भी अपने भीतर इन्हें गूंजता पाएंगे.