शुक्रवार, सितंबर 7

कौन जाने


कौन जाने

कविता क्या है
उसका भविष्य क्या है
कौन उलझता है इन प्रश्नों में
जब की जीवन का ही पता नहीं
कौन रख गया हमें इक्कीसवीं सदी के
इस भयानक दौर में
कुछ भी तो स्पष्ट नहीं है...
जहरीला धुआँ कोयले की खदानों का
दूषित कर रहा है
निकल आता है कोई न कोई जिन
हर दूसरे दिन जाने कहाँ से...
इन जिनों के मालिक
कैसे सोते होंगे रात...  
दुनिया जैसी भी है
काम चला ही लेती है
हर पीढ़ी जैसे-तैसे...
और विरासत में दे जाती है
कुछ और दर्द व पीडाएं
अपनी संतानों को... 

तू अंतर को प्रेम से भर ले



तू अंतर को प्रेम से भर ले

व्यर्थ ही तू क्यों चिंता करता
तेरे लिए तो मैं हूँ ना,
तू अंतर को प्रेम से भर ले
कुछ अप्राप्य रहेगा ना !

तुम हम फिर मिलकर डोलेंगे
उलझन में तू क्यों भ्रमता है,
मन जो गोकुल बन सकता था
क्यों उदास सा तकता है !

तू है मेरा प्रियतम अर्जुन !
वंचित क्यों है परम प्रेम से,
क्या जग में जो पा न सकता
जग चलता है यह प्रेम से !

सब कुछ सौंप दिया है तुझको
अगन, पवन, जल और धरा में,
किस आकर्षण में बंध कर तू
डोले सुख-दुःख, मरण-जरा में !

करुणा सदा बरसती सब पर
बस तू मन को पात्र बना ले,
जीवन बन जायेगा मंदिर
दिवस-रात्रि का गान बना ले ! 

सोमवार, सितंबर 3

कवयित्री शन्नो अग्रवाल का काव्य संसार-खामोश ख़ामोशी और हम में


प्रिय ब्लॉगर साथियों, मैं कोई समीक्षक नहीं हूँ, मुझे खामोश ख़ामोशी और हम की कवितायें अच्छी लगीं, जो अपने होते हैं उनके साथ हम अपना सुख बाँटना चाहते हैं, इस श्रंखला का मात्र यही उद्देश्य है कि आप सब भी इन्हें पढ़कर आनंदित हों.
स्नेहिल परिवार में जन्मीं शन्नो अग्रवाल इस श्रंखला की अगली कवयित्री हैं. गृहस्थी की जिम्मेदारियों के कारण इनके बाल्यावस्था की लेखन प्रतिभा मन में ही सोयी पड़ी थी, जो कुछ वर्ष पहले से पुनः निखर कर सामने आने लगी है. खामोश ख़ामोशी और हम में इनकी दस कवितायें हैं, सभी पठनीय हैं और कोमल भावों की एक सरिता बहाती हैं. दीप जले, मुफलिस का दिया, मानव दीप इन तीन कविताओं का मूल स्वर प्रकाश है, ऐसा प्रकाश जो भीतर-बाहर सब कुछ रोशन कर देता है. चाँद तुम चाँदनी मैं तेरी तथा प्रेम रूप दो प्रेम कवितायें हैं. मेरी नन्ही कलीबचपन में कवयित्री बचपन के मासूम पलों को पुनः-पुनः जीना चाहती है. जीवन क्रम जिंदगी की असलियत को समझने की कोशिश है और शायद फुरकत में तथा तपिश दो उदासी के रंग में डूबी सुंदर नज्में हैं.

चाँद तुम मैं चाँदनी मेरी में कवयित्री उस अज्ञात प्रियतम से वार्तालाप करती है जो उसकी पहुँच से बहुत दूर सही पर दिल के बहुत करीब है, क्योंकि प्रेम किसी भी तरह की दूरी, बंधन को नहीं स्वीकारता.

जमीं आसमां का फर्क है तो क्या
तुम धडकनों में आकर बसे हो मेरी
चाँद तुम हो मैं चाँदनी तेरी

आसमां पे हो तुम मैं हूँ कदमों तले
मैं भटकती यहाँ तू वहाँ पे पले
महफिलें सजी हैं तारो की वहाँ
हैरान सा है हर नजारा यहाँ
तन्हाइयों का दामन है फैला हुआ
साज तुम हो मैं रागिनी तेरी
...
..
अकेले न तुम जा सकोगे
रात की शबनमी पलकों पे गिरा
मेरे दामन का तुमने पकड़ा है सिरा
तुम हमकदम मेरे मैं हूँ साया तेरा
..
जमीं आसमां का फर्क है तो क्या

प्रेम का बिना यह सृष्टि अधूरी है बल्कि उसका अस्तित्त्व ही प्रेम पर टिका है, इसी परम सत्य का प्रकाशन होता है प्रेम रूप में-

प्रेम सहारा प्रेम किनारा
दर दर भटके ये बंजारा
प्रेम सत्य है, है गुरुद्वारा
इस बिन जीवन सूना सारा

प्रेम का दीपक जब जलता है
उजियारा मन में करता है
..
सबका बनेगा यही सहारा
बिन इसके मन हारा-हारा
..
प्रेम की खातिर शोर मचा है
रहती जीवन गागर खाली
ज्यों बिन बगिया होवे माली
प्रेम है धड़कन प्रेम साँस है
धूप-छाँव में यही आस है
..
यही आरती यही ज्योत है
मन उमंग का यही स्रोत है
..
बन इसके मन उजड़ा उपवन
बिम्ब बना ज्यों सुना दर्पण

दीया चाहे दीवाली का हो या पूजा के थाल का सभी के भीतर आह्लाद भर देता है, ऋषियों ने अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की जो प्रार्थना वेदों में गाई है वह हम सभी के हृदय की मूल प्रार्थना है-

दीप जले

आओ मिलकर दीप उठाकर
साथ चलें
घर-बाहर रोशन कर दें सारा
दीप जलें

..
तम दूर करें जब ज्योति जले
हो रजनी निसार

नूतन आशा से मन हो पावन
अब मिलकर
निर्मलता का दीपक हो प्रज्वलित
सबके अंदर
..
सुख सौरभ की करें कामना
नभ के तले
जग जीवन में प्रेम के दीपक
सदा जलें

मुफलिस का दीया

मुफलिस का दिया हूँ
बाती का पिया हूँ
आंधी के झोंकों में
मर-मर कर जीया हूँ.
..
झरोखों और कगारों पे
लोगों की मजारों पे
पिघलता हूँ बैठ कर
खुशी-गम के नजरों पे.
..
मानव-दीप

मिट्टी, कांच और धातु के
कितने तरह के दिये  
बनाये जाते हैं
जलाये जाते हैं
बुझाये जाते हैं
और हम मानव भी
मिट्टी के नए दिए की तरह
हाड़-मांस के पुतलों के
आकार में
धरती पर आते हैं
जलाते हैं. टिमटिमाते हैं
..
फिर जीवन की लौ के बुझते
उन्ही मिट्टी के दीयों से
गल जाते हैं
और मिट्टी में मिल जाते हैं.

“बचपन के दिन भी क्या दिन थे”, हममें से किसने नहीं पुकारा होगा बचपन को, इंसान कितना भी बड़ा हो जाये उसका बचपन यादों में सदा बसा ही रहता है, माँ अपने बच्चे में उसे पुनः जीती है, मेरी नन्ही कली में कवयित्री उस बचपन को याद करती है जो चाँदनी सा पावन है और गुनगुनी धूप सा मोहक..

तू वह अहसास है दिल का
जिसे माँगा था
बरसों तक
...
तेरा बचपन आकर मुझको
आज भी है
गुदगुदा जाता
तोतली बातों का मीठापनन जाने क्या
बुदबुदा जाता
चाँदनी बन बरसी आँगन में
या जैसे कुछ धूप गुनगुनी
..
तू है मेरे आंचल की खुशबू
जिससे घर-आँगन महका है
तेरे मासूम इशारों पे चल
दिल फिर से
लहका है

बचपन

मेरे बचपन बता तू क्यों चला गया
इस जमाने के गम भी हमें दे गया

न जाने कब वो तेरी कड़ी खो गयी
वो हँसी खो गयी मैं बड़ी हो गयी
...
जादू नगरी में चंदा और तारो का घर
जहाँ पे लगती नहीं बच्चों को नजर
..
ढूँढती हूँ वह सुकूं पर अब मिलता नहीं
फूल कोई भी मुरझा के खिलता नहीं

वो बेफिक्री के लम्हे सभी खो गए
तू कहीं खो गया और हम कहीं खो गए

इस जगत में सब कुछ पल-पल बदल रहा है, आज जहाँ रौनक है कल वहाँ मातम भी हो सकता है..जहाँ वसंत है वहाँ पतझड़ भी आता है.. सुख-दुःख के ताने-बने से बुनी है यह जीवन की चादर...तपिश में उस अनाम दुःख की चर्चा कवयित्री करती है जो बाँटने से हल्का भी हो जाता है..
शायद फुरकत में

न कोई महकता गुलाब
खामोश है है हर मंजर
कहीं छिपा है आफ़ताब

बादल तो नहीं हैं फिर भी
आज उदास है आसमां
कहाँ है रौनक उसकी
कहाँ है उसका वो गुमां

जो बारिश हुई कल रात
गीला-गीला सा है समां
नाजिशे-गुलिस्तां वो समां
कहाँ है उसका जमजमा

तपिश

सुनते हैं कि
ठीक हो जाते हैं
सही मरहम से
कुछ घाव
बुझ जाते हैं
बरसों से मन में
जलते हुए
कुछ अलाव
पर उनका क्या?
जो हमेशा दुखते
रह जाते हैं
और जब मन
हर तरफ से हो हो हारा
..
मुझे भान है सखी
कि तुमसे मिलकर
उन लम्हों में
उस अपनत्व में
अनचाहे, अनजाने ही
जो बरसी घटा
गम भी हल्का हुआ
निराशा का कोहरा भी

जीवन की सुगंध को बिखेर कर सभी को एक न एक दिन इस संसार को त्याग के जाना ही होगा..जैसे सूरज ढलता है अपनी रश्मियाँ बिखरा कर ठीक उसी तरह..जीवन के इस शाश्वत तथ्य को कवयित्री ने सरल सहज प्रवाहमयी भाषा में प्रस्तुत किया है अंतिम कविता जीवन का क्रम में..


नभ में रंगो की छटा ऐसी ही थी
लेकिन अब ये जीवन की संझा है
सुबह ही तो आकाश के कोने में
जब लालिमा बिखरी थी
तो यही सूरज उदित हुआ था
अपने पथ पर एक अकेला यात्री
बन कर चल पड़ा था
..

दिन भर अपनी ऊर्जा को बिखेरा
और उसकी रश्मियों की ऊष्मा
धरती को विभोर करती रही
...
और अब संझा के आगोश में
निढाल हो चुका है वही सूरज

..
कल यही सूरज फिर उसी उमंग से
अपनी पूरी ऊर्जा लेकर आएगा
अपना कर्त्तव्य पूरा करने
फिर शुरू होगा वही जीवन का क्रम
..
सूरज की ऊष्मा का स्पंदन
धरती की रग रग में समा जाना
फिर अपने जीवन के अंतिम क्षणों को
संझा को समर्पित करके डूब जाना
  
शन्नो अग्रवाल जी कि कविताओं को पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा कि यदि हम जीवन को गहराई से जान सकें तो वह दीया उपलब्ध हो जायेगा जो भीतर-बाहर प्रेम की सुगंध बिखेर सकता है, जो मन को सदा शिशु की तरह ताजा रख सकता है, आशा है आप सभी सुधी पाठकों को भी इन सुंदर कविताओं का रसास्वादन मिलेगा. उनके सुखद भविष्य की कामना करते हुए मैं उन्हें बधाई देती हूँ.



गुरुवार, अगस्त 30

चंदा ज्यों गागर से ढलका



चंदा ज्यों गागर से ढलका

खाली है मन बिल्कुल खाली
एक हाथ से बजती ताली,
चेहरा जन्म पूर्व का जैसे
झलक मृत्यु बाद की जैसे !

ठहरा है मन बिल्कुल ठहरा
मीलों तक ज्यों फैला सेहरा,
हवा भी डरती हो बहने से
श्वासों पर लगा है पहरा !

हल्का है मन बिल्कुल हल्का
नीलगगन ज्यों उसमें झलका,
जो दिखता है किन्तु नहीं है
चंदा ज्यों गागर से ढलका !

है अबूझ सब जान रहा है
कहना मुश्किल, मान रहा है,
पार हुआ जो जिजीविषा से
खेल मृत्यु से ठान रहा है !



मंगलवार, अगस्त 28

वीना श्रीवास्तव जी का काव्य संसार - खामोश ख़ामोशी और हम में


हिंदी दिवस पर जन्मी वीना श्रीवास्तव खामोश खामोश और हम की अगली कवयित्री हैं. वर्तमान में रांची में रहने वाली वीना जी स्वतंत्र लेखन करती हैं व ब्लॉग लिखती हैं. इनकी नौ कवितायें इस सकलंन में सम्मिलित हैं. इनकी कवितायें रूमानी प्रेम व सपनों की बातें करती हैं, प्रकृति की सुंदरता की छवि बिखेरती हैं और जिंदगी के कई पहलुओं को धीरे से उठाती हैं.

इनकी पहली कविता है - अस्तित्त्व बोध जिसमें कवयित्री प्रियतम की याद को ही अपने अस्तित्त्व बोध का कारण बताती है

मीठी सी याद
गुनगुनाती है
जब भी
खिलखिलाते हैं तारे
पुरवाई देती हैं मधुर स्वर
...
ख़ामोशी में गूंजती
तुम्हारी आवाज
निकल जाती है
चीरती हुई दिल को
बह जाती है
..
तुम्हारे होने का अहसास
तुम्हारी यादों से है
मेरे जीवन का अस्तित्त्व
मेरे होने का बोध
...

दूसरी कविता चाहत में प्रेम की अनछुई सी पुलक का अहसास होता है –

हर दिन की
चाहत में
होता है एक खुशनुमा रात का अरमां
रात आये
दिन भी झूमता-गाता
मदमस्त पवन के
झोंकों में
सिंदूरी रंग भरकर
छुप जाये
रात के सीने में
...
..
बिखरा दे फिर
जगमग किरणें
..
चाँद की रोशनी में
बिखर जाये
संगमरमर की मूरत
और ढल जाये

जरूरी है तुम्हारा बरसना भी एक प्रेम कविता है जिसमें मरुस्थल, पपीहा और बादल के प्रतीकों का सहारा लेकर प्रेम की तीव्रता को दर्शाया है

तुम नहीं जानती
मैं कितना प्यासा हूँ
दूर दूर तक फैला
ये मरुस्थल
झुलसा रहा है मुझे
...
पपीहे को क्यों भाता है
स्वाति नक्षत्र का जल
..
उसे स्वाति नक्षत्र चाहिए
मुझे तुम
...
हरियाली बिखरने के लिये
जरूरी है तुम्हारा बरसना
...
कोना कोना प्यार में कवयित्री बड़ी सहजता से मन में जगी ईर्ष्या की भावना के दंश से बचने के लिये प्यार को उपाय बनाती है

जब जब
मन के किसी कोने में
पांव पसारती है ईर्ष्या
मोतियों की तरह
बिखर जाती हैं खुशियाँ
...
जो डसती है
सुख-चैन
इसलिए मन का कोना कोना
..
भर दो प्यार से
..
फलने फूलने दो
सुखों को

इंतजार में भी इस विशाल कायनात में होती पल पल की प्रतीक्षा को आधार बना कर प्रेम का ही इजहार किया गया है

ये इंतजार किसका है
रात को दिन का या दिन को रात का
..
कान सुनने को बेचैन हैं
वो मीठी बातें
या बातों को इंतजार है
उन कानों का
जहाँ वह घोलेगी मिश्री
..
जीवन के प्रति गहन प्रेम दर्शाता है जीवन खत्म नहीं होता

अभी खत्म नहीं हुआ है
इंतजार
आंच बाकी है
चूल्हे में
फांस बाकी है
दिल में
चुभन की टीस है
पांव में
माँ की सीख है
जीवन में
..
नन्हें हाथों को तलाश है
दामन की
दिनों की तलाश है
महीनों की
..
इंतजार अनवरत
क्योंकि
जीवन कभी खत्म नहीं होता

मैं सदा जीवित रहूंगी में कवयित्री स्वप्न और वास्तविकता में भेद बताती हुई जीवन की शाश्वतता का चित्रण करती है -

तुम क्यों जी रहे हो
स्वप्नों के संसार में
क्या रखा है
सपनों में
..
हकीकत में नहीं दे पायोगे
स्वप्नों सा जीवन
...
मेरा जीवन है
तुम्हारे स्वप्नों में
..
मैं सदा जीवित रहूंगी
तुम्हारे स्वप्नों में

प्रेम का एक अभिन्न पक्ष है विरह तुम नहीं आये में विरह की आग में तप कर निखर आये प्रेम का चित्रण है

सब कुछ आता है
तुम नहीं आते
ये दिन ये रातें
आती-जाती हैं
एक के बाद एक
नैनों में बहते
आंसुओं में
दिल डूबता उतराता है
लेकिन तुम नहीं आते
..
..
रोज होती है सुबह
कोयल की कूक के साथ
..
बीत जाती हैं शामें ..
रात की रानी को महकाकर
तुम नहीं आते
..
ये जीवन भी
गुजरेगा यूँ ही
रिसेगा यूँ ही
नही होगा अंत
क्योंकि तुम नहीं आये

मौन से बातें करती कवयित्री अंत में ख़ामोशी में ही जीवन का उदेश्य पाती है-

ख़ामोशी
तू क्यों मुझे भाती है
..
मैंने  गुनगुनाया है तुझे
..
जीया है तुझे
भीड़ में
गाया है तन्हाइयों में
भिगोया है तुझे
आंसुओं में
...
चाँदनी रात में
खिलखिलाई है
किरणें बनकर
तपती धूप में
टपकी है पसीना बनकर
,..
क्या बताऊँ
क्या-क्या मिला तुझसे
जीवन मिला
और
जीने का उद्देश्य भी

वीना श्रीवास्तव की इन सरल भाषा में रची छंद मुक्त कविताओं को पढ़ते हुए कभी भीतर मौन पसर जाता है, कभी कोई भूली बिसरी याद मन को हिला जाती है तो कभी प्रकृति अपने सौंदर्य को साकार करती प्रतीत होती है. आशा है सुधी पाठक जन भी इन्हें पढ़कर आह्लादित होंगे.