मैं तुम और प्रेम
मै, तुम और प्रेम एक ही शै के तीन नाम हैं
जिनसे पनपी हैं सारी सभ्यताएं
अतीत से भविष्य तक
बांधता है एक ही सूत्र भीतर से जिन्हें
ऊपर-ऊपर से ही है भेद
लेकिन तौला जाता है उपरी आवरण देख
चमकता हुआ पत्थर उठा लिया जाता है
हीरा समझ कर
जल्दी में हैं जो लोग
देख नहीं पाते वह आधार
जो जोड़ता है
एक महीन पारदर्शी फिल्म सा
जो है भी और नहीं भी
जिसमें लिपटा है ब्रह्मांड
जो होकर भी अव्यक्त है
इसी प्रकृति की ऊर्जा के पुजारी हैं
मैं, तुम और प्रेम.....
कल 09/05/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
गहन बात .... जो है और नहीं भी ॥फिर भी पूरा ब्रह्मांड है ... बहुत सुंदर ॥
जवाब देंहटाएंमैं तुम और प्रेम.................
जवाब देंहटाएंपूरा ब्रह्मांड...........
या कभी कुछ भी नहीं................
प्यार की खुबसूरत अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंबहुत गहन चिंतन...अति सुन्दर...आभार
जवाब देंहटाएंव्यक्त अव्यक्त के रहस्य को छूती हुई गहन कविता!
जवाब देंहटाएंसादर!
गहन भाव,,,,सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएंमैं तुम और प्रेम में पूरा ब्रह्मांड छिपा है..बहुत गहन और खुबसूरत अभिवयक्ति....आभार
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन रचना....
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है।
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमैं तुम और प्रेम......बहुत ही सुन्दर और गहन रचना ।
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