एक बीज बोया अंतर में
ऊपर कितना ही साधा हो
एक खोज भीतर चलती है,
नहीं यहाँ विश्राम किसी को
सदा वही पथ पर रखती है !
किन्तु अनोखे राहीगर हम
हर पड़ाव पर खेमे गाड़े,
जैसे मिल ही गयी हो मंजिल
हुए बेखबर खुद से हारे !
जाग रहा है भीतर कोई
रहे ताकता पल-पल जैसे,
बाहर ही बाहर हम तकते
मिलन घटे फिर उससे कैसे !
है अनंत धैर्यशाली वह
किन्तु डसे अधीरता मन को,
प्रीत पगा वह सहज डोलता
मुरझाया उर तपन सहे जो !
श्वासों की अलख डोरी सा
मिल सकता पर नहीं मिला है
एक बीज बोया अंतर में
खिल सकता पर नहीं खिला है !
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन - आप सभी को लठ्ठमार होली (बरसाना) की हार्दिक बधाई में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार हर्षवर्धन जी !
हटाएंप्रेम की खुराक ज़रूरी है अंतस के बीज को खिलने की ... भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, प्रेम का बीज तो प्रेम से ही पनपेगा..
हटाएंखिलेगा और नया बीज भी फिर मिलेगा । सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंइसी आशा और विश्वास की आवश्यकता है प्रेम के इस बीज को खिलने के लिए..
हटाएंस्वागत व आभार मानव जी !
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