ऐसा है वह अनंत
चादर की तरह लपेट
लिया है काँधे पर
उसने नीले आकाश को
मस्तक पर चाँद की
बिंदी लगाये
धार लिया है सूरज वक्षस्थल
पर गलहार में
आकाश गंगाएं उसकी
क्रीडा स्थली हैं
सितारों को पहन लिया
है कानों में
बादलों में छिपी
बूँदें
बन गयी हैं पाजेब
पैरों की
दिशाओं को भर लिया
है हाथों में
ऐसा है वह अनंत
उसे कोई भी नाम दो
हर रोज उतरता है धरा
पर
साथ जागरण के
हर रात झांकता है नींद
में !
बहुत सुंदर और सारगर्भित अभिव्यक्ति...
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