शुक्रवार, अक्तूबर 4

जब कभी भारी हो मन


जब कभी भारी हो मन

जब कभी भारी हो मन
लगे, न जाने कैसा बोझ रखा है मन पर
कारण कुछ भी हो....तब यही सोचना होगा
शायद पूर्व के संस्कार जागृत हुए हैं
या कोई कर्म अपना फल देने को उत्सुक है
अथवा तो बोये थे जो बीज अतीत में.. वे अंकुरित हो रहे हैं  
जब जीवन कुछ सवाल लेकर सम्मुख खड़ा हो
हल्का था जो मन भारी बड़ा हो
शिरायें तन गयी हों मस्तिष्क की
आघात कर रहा हो हृदय पर कोई
हो कंधों में तनाव और उत्साह की कमी
चाहिए जब एक विश्राम गहरा... एक नींद सुकून भरी !
एक मस्ती भीतर... एक शांति अचाह भरी !
पर सिर्फ चाहने भर से कहाँ कुछ होता है ?
उसके लिए सतत प्रयासरत रहना पड़ता है
जो हो रहा है उसे पूरे मन से स्वीकारना होता है
या फिर छोड़ देना है सब कुछ अनाम के चरणों में
हर नकारात्मक विचार एक नये दु:स्वप्न की तैयारी है
पर इन सबको देखने वाला साक्षी तो वैसा का वैसा है
यह सब कुछ घट रहा है उसकी ऊर्जा से ही
जो कभी खत्म होने में नहीं आती... वह ऊर्जा अनंत है
युगों-युगों से काँप रहे हैं अर्जुनों के गांडीव
पर कृष्ण अचल... निर्द्वन्द्व है !

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